बस एक वक़्त का ख़ंजर मेरी तलाश में है- कृष्ण बिहारी ‘नूर’

8 नवंबर 1925 को लखनऊ के ग़ौसनगर मुहल्ले में पैदा हुए शायर कृष्ण बिहारी ‘नूर’ ने ताउम्र बड़ी ही संजीदगी से लफ़्ज़ों को संभाल कर उन्हें काग़ज़ पर उकेरा। कृष्ण बिहारी ‘नूर’ का शायरी कहने का भी अंदाज़ निराला रहा है। शुरुआत में कृष्ण बिहारी ‘नूर’ अपने कलाम को तरन्नुम में गाया करते थे, लेकिन बाद में मुशायरों में वो तहत में अपनी ग़ज़लों को सुनाने लगे। आज सी न्यूज़ भारत के साहित्य में लखनऊ की सरज़मीं पर जन्मे कृष्ण बिहारी ‘नूर’ की कलम से निकले हुए कुछ कलाम पेश हैं आप सभी के लिए...।
नज़र मिला न सके उससे उस निगाह के बाद।
वही है हाल हमारा जो हो गुनाह के बाद।
 
मैं कैसे और किस सिम्त मोड़ता ख़ुद को,
किसी की चाह न थी दिल में, तिरी चाह के बाद।
 
ज़मीर काँप तो जाता है, आप कुछ भी कहें,
वो हो गुनाह से पहले, कि हो गुनाह के बाद।
 
कहीं हुई थीं तनाबें तमाम रिश्तों की,
छुपाता सर मैं कहाँ तुम से रस्म-ओ-राह के बाद।
 
गवाह चाह रहे थे, वो मिरी बेगुनाही का,
जुबाँ से कह न सका कुछ, ‘ख़ुदा गवाह’ के बाद।।
बस एक वक़्त का ख़ंजर मेरी तलाश में है,
जो रोज़ भेस बदल कर मेरी तलाश में है।
 
ये और बात कि पहचानता नहीं मुझे,
सुना है एक सितमग़र मेरी तलाश में है।
 
अधूरे ख़्वाबों से उकता के जिसको छोड़ दिया,
शिकन नसीब वो बिस्तर मेरी तलाश में है।
 
ये मेरे घर की उदासी है और कुछ भी नहीं,
दिया जलाये जो दर पर मेरी तलाश में है।
 
अज़ीज़ मैं तुझे किस कदर कि हर एक ग़म,
तेरी निग़ाह बचाकर मेरी तलाश में है।
 
मैं एक कतरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है,
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है।
 
मैं देवता की तरह क़ैद अपने मंदिर में,
वो मेरे जिस्म के बाहर मेरी तलाश में है।
 
मैं जिसके हाथ में इक फूल देके आया था,
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है।
 
वो जिस ख़ुलूस की शिद्दत ने मार डाला ‘नूर’,
वही ख़ुलूस मुकर्रर मेरी तलाश में है।।

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