छायावाद के अग्रणी कवि जयशंकर प्रसाद की जयंती पर विशेष

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म 9 सितंबर 1850 को बनारस के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। उनका मूल नाम 'हरिश्चन्द्र' था और 'भारतेन्दु' उनकी उपाधि थी। भारतेन्दु आधुनिक हिंदी साहित्य के साथ-साथ हिंदी थियेटर के भी पितामह कहे जाते हैं। भारतीय नवजागरण की मशाल थामने वाले भारतेंदु जीने अपनी रचनाओं के ज़रिए गऱीबी, ग़ुलामी और शोषण के विरुद्ध आवाज़ बुलंद की। हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से ही माना जाता है। 6 जनवरी 1885को मात्रपैंतीस वर्ष की उम्र मेंअपनी अंतिम साँस लेकर इस दुनिया को अलविदा कहने वाले भारतेंदु हरिश्चन्द्र की अनेक विधाओं पर पकड़ थी। वे एक गद्यकार, कवि, नाटककार, व्यंग्यकार और पत्रकार थे भी। उन्होंने 'बाल विबोधिनी' पत्रिका, 'हरिश्चंद्र पत्रिका' और 'कविवचन सुधा'पत्रिकाओं का संपादन किया। आज भारतेंदु जी की जयंती के अवसर उनकी लेखनी से निकली कुछ कविताओं को आप सभी सुधि पाठकों के बीच हम प्रस्तुत कर रहे हैं...।

सब गुरुजन को बुरो बतावै ।
अपनी खिचड़ी अलग पकावै ।
भीतर तत्व न झूठी तेजी ।
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेजी ।

तीन बुलाए तेरह आवैं ।
निज निज बिपता रोइ सुनावैं ।
आँखौ फूटे भरा न पेट ।
क्यों सखि सज्जन नहिं ग्रैजुएट ।

सुंदर बानी कहि समुझावै ।
बिधवागन सों नेह बढ़ावै ।
दयानिधान परम गुन-आगर ।
सखि सज्जन नहिं विद्यासागर ।

सीटी देकर पास बुलावै ।
रुपया ले तो निकट बिठावै ।
ले भागै मोहिं खेलहिं खेल ।
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि रेल ।

धन लेकर कछु काम न आव ।
ऊँची नीची राह दिखाव ।
समय पड़े पर सीधै गुंगी ।
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि चुंगी ।

मतलब ही की बोलै बात ।
राखै सदा काम की घात ।
डोले पहिने सुंदर समला ।
क्यों सखि सज्जन नहिं सिखअमला ।

रूप दिखावत सरबस लूटै ।
फंदे मैं जो पड़ै न छूटै ।
कपट कटारी जिय मैं हुलिस ।
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि पुलिस ।

भीतर भीतर सब रस चूसै ।
हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै ।
जाहिर बातन मैं अति तेज ।
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेज ।

सतएँ अठएँ मों घर आवै ।
तरह तरह की बात सुनाव ।
घर बैठा ही जोड़ै तार ।
क्यों सखि सज्जन नहिं अखबार ।

एक गरभ मैं सौ सौ पूत ।
जनमावै ऐसा मजबूत ।
करै खटाखट काम सयाना ।
सखि सज्जन नहिं छापाखाना ।

नई नई नित तान सुनावै ।
अपने जाल मैं जगत फँसावै ।
नित नित हमैं करै बल-सून ।
क्यों सखि सज्जन नहिं कानून ।

इनकी उनकी खिदमत करो ।
रुपया देते देते मरो ।
तब आवै मोहिं करन खराब ।
क्यों सखि सज्जन नहिं खिताब ।

लंगर छोड़ि खड़ा हो झूमै ।
उलटी गति प्रति कूलहि चूमै ।
देस देस डोलै सजि साज ।
क्यों सखि सज्जन नहीं जहाज ।

मुँह जब लागै तब नहिं छूटै ।
जाति मान धन सब कुछ लूटै ।
पागल करि मोहिं करे खराब ।
क्यों सखि सज्जन नहिं सराब ।

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