मैं मृत्यु सिखाता हूँ- ओशो


ओशो कहते हैं –‘मैं मृत्‍यु सिखाता हूं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं जीवन का विरोधी हूं. मृत्यु से तो छुटकारा संभव नहीं हैं. लेकिन तुमसे कहा किसने की तुम मरोगें. तुम न तो पहले कभी मरें हो, न अब मर सकते हो, जो मरता है वो तुम नहीं हो कोई और है. तुम्हारे भीतर जो मालिक है, वो न तो जन्मता है न तो मरता हैं. बहुत बार यह जीवन आया गया है, तुम कोई नए नहीं हो. कई बार आये और कई बार गए लेकिन जो भीतर बैठा हैं, वह शाश्वत हैं. न उसे जन्म छूता हैं, न मृत्यु उसे छूती हैं. कृष्णा ने कुरुक्षेत्र में यही कहा- कृष्ण ने कहा अर्जुन से कि तू भयभीत मत हो, क्योंकि तू जिन्हें सामने खड़े देख रहा है, वे बहुत बार रहे हैं पहले भी. तू भी था, मैं भी था, हम सब बहुत बार थे और हम सब बहुत बार होंगे. जगत में कुछ भी नष्ट नहीं होता. इसलिए न मरने का डर है, न मारने का डर है. सवाल है जीवन को जीने का. और जो मरने और मारने दोनों से डरते हैं, वे जीवन की दृष्टि में कदम नपुंसक और इंपोटेंट हो जाते हैं.

जो न मर सकता है, न मार सकता है, वह जानता ही नहीं कि जो है वह न मारा जा सकता है, न मर सकता है। कैसे होगी वह दुनिया जिस दिन सारा जगत जानेगा भीतर से कि आत्मा अमर है! उस दिन मृत्यु का सारा भय विलीन हो जाएगा! उस दिन मरने का भय भी विलीन हो जाएगा, मारने की धमकी भी विलीन हो जाएगी। उस दिन युद्ध विलीन होंगे, उसके पहले नहीं. जब तक आदमी को लगता है कि मारा जा सकता है, मर सकता हूं, तब तक दुनिया से युद्ध विलीन नहीं हो सकते. चाहे गांधी समझाएं अहिंसा, और चाहे बुद्ध और चाहे महावीर. चाहे सारी दुनिया में अहिंसा के कितने ही पाठ पढ़ाए जाएं. जब तक मनुष्य को भीतर से यह अनुभव नहीं पैदा हो सकता कि जो है, वह अमृत है, तब तक दुनिया में युद्ध बंद नहीं हो सकते.

वे जिनके हाथों में तलवारें दिखती हैं, यह मत समझ लेना कि वे बहुत बहादुर लोग हैं. तलवार सबूत है कि यह आदमी भीतर से डरपोक है, कायर है, कावर्ड है. चौराहों पर जिनकी मूर्तियां बनाते हो तलवारें हाथ में लेकर, वे कायरों की मूर्तियां हैं. बहादुर के हाथ में तलवार की कोई जरूरत नहीं है,  क्योंकि वह जानता है कि मरना और मारना दोनों बच्चों की बातें हैं. लेकिन एक अदभुत प्रवंचना आदमी पैदा करता है. जिन बातों को वह नहीं जानता है, उन बातों को भी इस भांति कोशिश करता है कि जैसे हम जानते हैं. भय के कारण! भीतर है भय, भीतर वह जानता है कि मरना पड़ेगा, लोग रोज मर रहे हैं। भीतर वह देखता है कि शरीर क्षीण हो रहा है, जवानी गई, बुढ़ापा आ रहा है। देखता है कि शरीर जा रहा है। और भीतर दोहरा रहा है कि आत्मा अजर-अमर है.

वह अपना विश्वास जुटाने की कोशिश कर रहा है, हिम्मत जुटाने की कोशिश कर रहा है-कि मत घबराओ! मत घबराओ! मौत तो है, लेकिन नहीं-नहीं, ऋषि-मुनि कहते हैं कि आत्मा अमर है। मौत से डरने वाले लोग ऐसे ऋषि-मुनियों के आस-पास इकट्ठे हो जाते हैं और भीड़ कर लेते हैं, जो आत्मा की अमरता की बातें करते हैं।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आत्मा अमर नहीं है. मैं यह कह रहा हूं कि आत्मा की अमरता का सिद्धांत मौत से डरने वाले लोगों का सिद्धांत है. आत्मा की अमरता को जानना बिलकुल दूसरी बात है. और यह भी ध्यान रहे कि आत्मा की अमरता को वे ही जान सकते हैं, जो जीते जी मरने का प्रयोग कर लेते हैं।उसकेअतिरिक्त कोई जानने का उपाय नहीं. इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है.

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