मगर मुश्किल तो ये है दिल बड़ी मुश्किल से मिलता है- "जलील मानिकपुरी"

शेर-ओ-सुख़न की दुनिया में ‘जलील’ मानिकपुरी का नाम काफी अहमियत रखता है। उनका पूरा नाम जलील हसन था। वह मशहूर शायर ‘अमीर’ मीनाई के शिष्य- थे। जलील मानिकपुरी की दो प्रमुख कृतियां ‘जाने-सुख़न’ और ‘सरताजे-सुख़न’ हैं। आज “कविता कोश” और “रेख्ता” के सभार जलील मानिकपुरी साहब की कुछ ग़ज़लों को पेश कर रहे हैं सी न्यूज़ भारत के साहित्य में...।

आँख लड़ते ही हुआ इश्क़ का आज़ार मुझे।
चश्म बीमार तिरी कर गई बीमार मुझे।

दिल को ज़ख़्मी तो वह करते हैं मगर हैरत है,
नज़र आती नहीं चलती हुई तलवार मुझे।

देखिए जान पे गिरती है कि दिल पर बिजली,
दूर से ताक रही है निगाह-ए-यार मुझे।

गरचे सौ बार इन आँखों से तुझे देखा है,
मगर अब तक है वही हसरते-दीदार मुझे।

मुझको परवा नहीं नासेह तेरी ग़मख़्वारी की,
ग़म सलामत रहे काफ़ी है यह ग़मख़्वार मुझे।

शीशा-ओ-जाम पे साक़ी कोई इल्ज़ाम नहीं,
तेरी आँखें किये देती हैं गुनहगार मुझे।

यार साक़ी हो तो चलता है अभी दौर 'जलील',
कौन कहता है कि पीने से है इनकार मुझे।

आज तक दिल की आरज़ू है वही,
फूल मुरझा गया है बू है वही।

सौ बहारें जहाँ में आई गईं,
माया-ए-सद-बहार तू है वही।

जो हो पूरी वो आरज़ू ही नहीं,
जो न पूरी हो आरज़ू है वही।

मान लेता हूँ तेरे वादे को,
भूल जाता हूँ मैं कि तू है वही।

तुझ से सौ बार मिल चुके लेकिन,
तुझ से मिलने की आरज़ू है वही।

सब्र आ जाए इस की क्या उम्मीद,
मैं वही, दिल वही है, तू है वही।

हो गई है बहार में कुछ और,
वर्ना साग़र वही सुबू है वही।

उम्र गुज़री तलाश में लेकिन,
गर्मी-हा-ए-जुस्तुजू है वही।

मय-कदे का 'जलील' रंग न पूछ,
रक़्स-ए-जाम ओ ख़ुम ओ सुबू है वही।।

मोहब्बत रंग दे जाती है जब दिल दिल से मिलता है,
मगर मुश्किल तो ये है दिल बड़ी मुश्किल से मिलता है।

कशिश से कब है ख़ाली तिश्ना-कामी तिश्ना-कामों की,
कि बढ़ कर मौजा-ए-दरिया लब-ए-साहिल से मिलता है।

लुटाते हैं वो दौलत हुस्न की बावर नहीं आता,
हमें तो एक बोसा भी बड़ी मुश्किल से मिलता है।

गले मिल कर वो रुख़्सत हो रहे हैं हाए क्या कहने,
ये हालत है कि बिस्मिल जिस तरह बिस्मिल से मिलता है।

शहादत की ख़ुशी ऐसी है मुश्ताक़-ए-शहादत को,
कभी ख़ंजर से मिलता है कभी क़ातिल से मिलता है।

वो मुझ को देख कर कुछ अपने दिल में झेंप जाते हैं,
कोई परवाना जब शम-ए-सर-ए-महफ़िल से मिलता है।

ख़ुदा जाने ग़ुबार-ए-राह है या क़ैस है लैला,
कोई आग़ोश खोले पर्दा-ए-महमिल से मिलता है।

'जलील' उस की तलब से बाज़ रहना सख़्त ग़फ़लत है,
ग़नीमत जानिए उस को कि वो मुश्किल से मिलता है।।

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