“जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये”- जिगर मुरादाबादी

जिगर मुरादाबादी उर्दू शायरी के एक ऐसे नायाब शायर थे जिनकी कलम से निकले मोहब्बत के अल्फ़ाज़ों ने सुनने और पढ़ने वालों को हमेशा ही जिगर साहब का मुरीद बना दिया। जिगर मुरादाबादी मोहब्बत को ही अपना भरोसा मानते थे और उम्र भर अपनी शायरी में उसी की इबादत की। जिगर साहब बाज़ार-ए-हुस्न के सैलानी तो थे, लेकिन वो हमेशा रिश्तों की बाज़ारियात से कोसों दूर रहे। आज सी न्यूज़ भारत के साहित्य में हम आपके लिए ले कर आए हैं जिगर मुरादाबादी की कलम से निकली दो ग़ज़लें...।

आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था,
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था।

वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था,
आता न था नज़र को नज़र का क़ुसूर था।

कोई तो दर्दमंदे-दिले-नासुबूर था,
माना कि तुम न थे, कोई तुम-सा ज़रूर था।

लगते ही ठेस टूट गया साज़े-आरज़ू,
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर-चूर था।

ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश,
शामिल किसी का ख़ूने-तमन्ना ज़रूर था।

साक़ी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान,
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था।

जिस दिल को तुमने लुत्फ़ से अपना बना लिया,
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था।

देखा था कल ‘जिगर’ को सरे-राहे-मैकदा,
इस दर्ज़ा पी गया था कि नशे में चूर था।।

आँखों में बस के दिल में समा कर चले गये,
ख़्वाबिदा ज़िन्दगी थी जगा कर चले गये।

चेहरे तक आस्तीन वो लाकर चले गये,
क्या राज़ था कि जिस को छिपाकर चले गये।

रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये,
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये।

आये थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते,
इक आग सी वो और लगा कर चले गये।

लब थरथरा के रह गये लेकिन वो ऐ "ज़िगर",
जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये।।

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