जो चराग़ सारे बुझा चुके उन्हें इंतिज़ार कहाँ रहा- अदा जाफ़री

23 अगस्त 1924 को उत्तर प्रदेश के बदायूँ जनपद में जन्म लेने वाली अदा जाफ़री की नज्में इश्क को उलझन से दूर स्वभाव समझती हैं। वह इसे अधिक से अधिक लोगों के बीच व्यवहारिक बनाने की कोशिश करती रही हैं। इनकी कुछ नज्में तो इश्क को जीवन का सार समझती हैं। बदलते दौर में भी इश्क की शमां जलाए रखने वाली अदा जाफ़री की कुछ नज़्मों को हम आज सी न्यूज़ भारत के साहित्य में पेश कर रहे हैं आप सभी सुधि पाठकों के लिए...।

अचानक दिल-रुबा मौसम का दिल-आज़ार हो जाना,
दुआ आसाँ नहीं रहना सुख़न दुश्वार हो जाना।

तुम्हें देखें निगाहें और तुम को ही नहीं देखें,
मोहब्बत के सभी रिश्तों का यूँ नादार हो जाना।

अभी तो बे-नियाज़ी में तख़ातुब की सी ख़ुश-बू थी,
हमें अच्छा लगा था दर्द का दिल-दार हो जाना।

अगर सच इतना ज़ालिम है तो हम से झूट ही बोलो,
हमें आता है पत-झड़ के दिनों गुल-बार हो जाना।

अभी कुछ अन-कहे अल्फ़ाज़ भी हैं कुँज-ए-मिज़गाँ में,
अगर तुम इस तरफ़ आओ सबा रफ़्तार हो जाना।

हवा तो हम-सफ़र ठहरी समझ में किस तरह आए,
हवाओं का हमारी राह में दीवार हो जाना।

अभी तो सिलसिला अपना ज़मीं से आसमाँ तक था,
अभी देखा था रातों का सहर आसार हो जाना।

हमारे शहर के लोगों का अब अहवाल इतना है,
कभी अख़बार पढ़ लेना कभी अख़बार हो जाना।।

जो चराग़ सारे बुझा चुके उन्हें इंतिज़ार कहाँ रहा,
ये सुकूँ का दौर-ए-शदीद है कोई बे-क़रार कहाँ रहा।

जो दुआ को हाथ उठाए भी तो मुराद याद न आ सकी,
किसी कारवाँ का जो ज़िक्र था वो पस-ए-ग़ुबार कहाँ रहा।

ये तुलू-ए-रोज़-ए-मलाल है सो गिला भी किस से करेंगे हम,
कोई दिल-रुबा कोई दिल-शिकन कोई दिल-फ़िगार कहाँ रहा।

कोई बात ख़्वाब ओ ख़याल की जो करो तो वक़्त कटेगा अब,
हमें मौसमों के मिज़ाज पर कोई ऐतबार कहाँ रहा।

हमें कू-ब-कू जो लिए फिरी किसी नक़्श-ए-पा की तलाश थी,
कोई आफ़ताब था ज़ौ-फ़गन सर-ए-रह-गुज़ार कहाँ रहा।

मगर एक धुन तो लगी रही न ये दिल दुखा न गिला हुआ,
के निगाह को रंग-ए-बहार पर कोई इख़्तियार कहाँ रहा।

सर-ए-दश्त ही रहा तिश्ना-लब जिसे ज़िंदगी की तलाश थी,
जिसे ज़िंदगी की तलाश थी लब-ए-जूएबार कहाँ रहा।।

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