कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये

आज सी न्यूज़ भारत के साहित्य में आपके लिए हम लेकर आये हैं हिंदी के क्रन्तिकारी कवि के रूप में जाने और पहचाने जाने वाले दुष्यंत कुमार की कुछ बेहरतरीन ग़ज़लें- पढ़िए ये शानदार ग़ज़लें-

 

"कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये"

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये,
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये। 

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये। 

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये। 

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही,
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये। 

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये। 

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये।

 

"कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं"

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं,
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं। 

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं। 

वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको,
क़ायदे-क़ानून समझाने लगे हैं।

एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है,
जिसमें तहख़ानों में तहख़ाने लगे हैं। 

मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने,
उस तरफ़ जाने से क़तराने लगे हैं। 

मौलवी से डाँट खा कर अहले-मक़तब,
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं। 

अब नई तहज़ीब के पेशे-नज़र हम,
आदमी को भूल कर खाने लगे हैं।


"खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही"

खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही,
अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही।

कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप,
जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही।

हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया,
हम पर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही। 

मेरे चमन में कोई नशेमन नहीं रहा,
या यूँ कहो कि बर्क़ की दहशत नहीं रही। 

हमको पता नहीं था हमें अब पता चला,
इस मुल्क में हमारी हक़ूमत नहीं रही। 

कुछ दोस्तों से वैसे मरासिम नहीं रहे,
कुछ दुश्मनों से वैसी अदावत नहीं रही। 

हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग,
रो—रो के बात कहने की आदत नहीं रही। 

सीने में ज़िन्दगी के अलामात हैं अभी,
गो ज़िन्दगी की कोई ज़रूरत नहीं रही। 

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