मिलना था इत्तिफ़ाक़ बिछड़ना नसीब था- अंजुम रहब

भारत में कोई कवि सम्मेलन हो या सऊदी अरब का मुशायरा, अंजुम रहबर उर्दू ग़ज़लों और अशआरों की एक सशक्त हस्ताक्षर रही हैं। अपनी ग़ज़लों में उन्होंने अपने मन की पीड़ाओं और मोहब्बत की नाकामयाबी के किस्से को भी बयाँ किया है। पर सही मायने में अपने इश्क़ को अंजुम रहबर ने अपनी ग़ज़लों में मुकम्मल करने का काम किया है। साल 1977 से मुशायरों में शामिल हो कर अपनी अलग पहचान बनाने वाली अंजुम रहबर की कलम से आज हम आपके लिए लेकर आये हैं उनकी बहुत ख़ास ग़ज़लें। पहली ग़ज़ल का शीर्षक है; “मिलना था इत्तिफ़ाक़ बिछड़ना नसीब था”...
 
 
मिलना था इत्तिफ़ाक़ बिछड़ना नसीब था,
वो उतनी दूर हो गया जितना क़रीब था।
 
मैं उस को देखने को तरसती ही रह गई,
जिस शख़्स की हथेली पे मेरा नसीब था।
 
बस्ती के सारे लोग ही आतिश-परस्त थे,
घर जल रहा था और समुंदर क़रीब था।
 
मरियम कहाँ तलाश करे अपने ख़ून को,
हर शख़्स के गले में निशान-ए-सलीब था।
 
दफ़ना दिया गया मुझे चाँदी की क़ब्र में,
मैं जिस को चाहती थी वो लड़का ग़रीब था।।
 
 
अब बारी है अगली ग़ज़ल की और इस ग़ज़ल का शीर्षक है; “तुम को भुला रही थी कि तुम याद आ गए”...
 
तुम को भुला रही थी कि तुम याद आ गए,
 
मैं ज़हर खा रही थी कि तुम याद आ गए।
 
कल मेरी एक प्यारी सहेली किताब में,
इक ख़त छुपा रही थी कि तुम याद आ गए।
 
उस वक़्त रात-रानी मिरे सूने सहन में,
ख़ुशबू लुटा रही थी कि तुम याद आ गए।
 
ईमान जानिए कि इसे कुफ़्र जानिए,
मैं सर झुका रही थी कि तुम याद आ गए।
 
कल शाम छत पे मीर-तक़ी-'मीर' की ग़ज़ल,
मैं गुनगुना रही थी कि तुम याद आ गए।
 
'अंजुम' तुम्हारा शहर जिधर है उसी तरफ़,
इक रेल जा रही थी कि तुम याद आ गए।।

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