सच है कि हम ही दिल को संभलने नहीं देते- अकबर इलाहाबादी

ग़ज़ल, नज़्म या शायरी की बात हो त्रिवेणी के किनारे बसे इलाहबाद (अब प्रयागराज) की ज़मीन पर जन्मे शायर अकबर इलाहाबादी हर विधा में कमाल का लिखते थे। उनकी लिखावट में कभी इश्क़ ने अंगड़ाइयाँ लीं तो कभी हास्य-व्यंग्य ने अठखेलियाँ कीं। उर्दू में हास्य-व्यंग और मोहब्बत के लाज़वाब शायर अकबर इलाहाबादी पेशे से जज थे। आज सी न्यूज़ भारत के साहित्य में आप सभी सुधी पाठकों के लिए पेश है अकबर इलाहाबादी की कुछ चुनिंदा ग़ज़लें...।

ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते,
सच है कि हम ही दिल को संभलने नहीं देते।

आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते,
अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते।

किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल,
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते।

परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले,
क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते।

हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना,
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते।

दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़है हर वक़्त,
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते।

गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माअ़ने
पंखा नफ़स-ए-सर्दका झलने नहीं देते।।

जो यूं ही लहज़ा-लहज़ा दाग़-ए-हसरत की तरक़्क़ी है,
अजब क्या, रफ्ता-रफ्ता मैं सरापा सूरत-ए-दिल हूँ।

मदद-ऐ-रहनुमा-ए-गुमरहां इस दश्त-ए-गु़र्बत में,
मुसाफ़िर हूँ, परीशाँ हाल हूँ, गु़मकर्दा मंज़िल हूँ।

ये मेरे सामने शेख-ओ-बरहमन क्या झगड़ते हैं,
अगर मुझ से कोई पूछे, कहूँ दोनों का क़ायल हूँ।

अगर दावा-ए-यक रंगीं करूं, नाख़ुश न हो जाना,
मैं इस आईनाखा़ने में तेरा अक्स-ए-मुक़ाबिल हूँ।

किस-किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा,
आज़ाद हो चुके थे, बन्दा बना के मारा।

अव्वलबना के पुतला, पुतले में जान डाली,
फिर उसको ख़ुद क़ज़ाकी सूरत में आके मारा।

आँखों में तेरी ज़ालिम छुरियाँ छुपी हुई हैं,
देखा जिधर को तूने पलकें उठाके मारा।

ग़ुंचों में आ के महका, बुलबुल में जा के चहका,
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा।

सोसन की तरह 'अकबर', ख़ामोश हैं यहाँ पर,
नरगिस में इसने छिप कर आँखें लड़ा के मारा।।

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