ज्वर शांति के लिए मंत्र लेखिका गरिमा सिंह अजमेर, राजस्थान, वर्तमान समय में बहुत सी बिमारियों ने विकराल रूप ले रखा है परंतु हमारे धर्म ग्रंथों में इसका समाधान भी मिलता है

गुजरात :- वर्तमान समय में बहुत सी बिमारियों ने विकराल रूप ले रखा है परंतु हमारे धर्म ग्रंथों में इसका समाधान भी मिलता है जैसे कि रामचरितमानस के उत्तर कांड की चौपाई 121( क)

 

 
सब कै निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥GU
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा॥

भावार्थ:-जो मूर्ख मनुष्य सब की निंदा करते हैं, वे चमगादड़ होकर जन्म लेते हैं। हे तात! अब मानस रोग सुनिए, जिनसे सब लोग दुःख पाया करते हैं॥

आगे की चौपाइयों में रामचरितमानस में ही बताया गया है-


एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥121 क॥

भावार्थ:-एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत से असाध्य रोग हैं। ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शांति) को कैसे प्राप्त करे?॥121 (क)॥

इनका भावार्थ प्रत्यक्ष रूप से कोरोना का वर्णन नहीं करता पर गूढ़ अर्थ देखा जाए तो यह उन सब परिस्थितियों के समान है जो वर्तमान में कोरोना महामारी ने उत्पन्न की है।

इसके निवारणार्थ आगे की चौपाई में कहा गया है-
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान॥121 ख॥

भावार्थ:-नियम, धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियाँ हैं, परंतु हे गरुड़जी! उनसे ये रोग नहीं जाते॥121 (ख)॥

इसी से संबंधित श्रीमद् भागवतत जी के दशम स्कंध के श्लोक नंबर 63 में एक प्रसंग है जिसमें प्रत्यक्ष रूप से भगवान श्री हरि विष्णु ज्वर हरण करते हैं।

भागवत में वर्णित निम्न श्लोकों
का पाठ करने से ज्वर की शांति होती है। पाठ के साथ श्लोकों के अर्थ और प्रसंग का ध्यान भी रखना चाहिए।
श्लोक इस प्रकार है-

ज्वर उवाच-
नमामि त्वानन्तशक्ति परेशं
सर्वात्मनं केवलं ज्ञाप्तिमात्रम्।
विश्वोत्पत्तिस्थानसंरोधहेतुं
यत्तद् ब्रह्म ब्रह्मालिंगं प्रशान्तम्।।
कालौ दैवं कर्म जीवः स्वभावो
द्रव्यं क्षेत्र प्राण आत्मा विकारः।
तत्संधातो बीजरोहप्रवाह-स्त्वन्मायैषा तन्निषेधं प्रपद्ये।।
नानाभावैर्लीलयैवोपपन्नै-
देवान् साधूँल्लोकसेतून् बिभर्षि।
हंस्युन्मार्गान् हिंसया वर्तमानान्
जन्मैतत्ते भारहाराय भूमेः।।
तमोऽहं ते तेजसा दुःसहेन
शान्तोग्रेणात्युल्बणेन ज्वरेण।
तावत्तापो देहिनां तेऽङ्घ्रिमूलं
नो सेवेरन् यावदाशानुबद्धाः।।

ज्वर ने भगवान श्री कृष्ण से कहा भगवान आपकी शक्तियों की कोई सीमा नहीं है, ब्रह्मादि सब ईश्वर माने जाते हैं। आप उनके भी परम महेश्वर हैं। आप सर्व आत्मा, सब के स्वरूप और ज्ञान आकार हैं। विश्व की उत्पत्ति लय के मूल में आप ही हैं। श्रुतियां आप का ही गुणगान करती है।आप पूर्णब्रह्म है विकार रहित है। मेरा प्रणाम स्वीकार करें। काल, देव, कर्म, जीव, स्वभाव, भूत, सूक्ष्म, शरीर सूत्रात्मा प्राण, अहंकार, 11 इंद्रियां, और पांचों भूत, इन सबका संघात रूप लिंग देह और उसके बीज का उगना और बढ़ना यह सब आपकी माया का फल है। परन्तु आप इन सबसे अलिप्त रहते हैं। मैं आपकी शरण में आता हूं। हे प्रभो! आप देवताओं, साधुगणों और लोकमर्यादा की रक्षा के लिए लीला से ही अनेकों रूपों को धारण‌ करते हैं और हिंसा व दुष्प्रवृतियों को आधार मानकर धनोपार्जन करने वालों का नाश करते हैं। आप पृथ्वी पर पापियों के नाश के लिए अवतीर्ण हुए‌‌ हैं!हे नाथ, आपके शान्त, उग्र और सहन न होने वाले अत्यन्त भयानक तेज रूप ज्वर से मेरा शरीर जल रहा है। हे प्रभो! शरीरधारी प्राणियों को तभी तक संताप रहता है जब तक आशा और तृष्णा के बन्धन में रहते हैं और आपकी शरण ग्रहण नहीं करते । अतः मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूं। आप मेरे ताप की निवृत्ति करें।

श्री भगवानोवाच-

त्रिशिस्ते प्रसन्नोऽस्मि व्येतु ते मज्जवराद् भयम्।
यो नौ स्मरति संवादं तस्य त्वन्न भवेद् भयम्।
इत्युक्तोऽच्युतमानम्य गतो माहेश्वरो ज्वरः।

इस पर भगवान श्रीकृष्ण ने त्रिशरा ज्वर को सम्बोधित करते हुए ‌कहा- तुम्हारी स्पष्ट स्वीकारोक्ति पर मुझे प्रसन्नता है। अब तुम्हें मेरे तेज रूप ज्वर से भयभीत नहीं होना चाहिए। इतना ही नहीं, जो साधक हमारी इस वार्ता का पाठ व स्मरण करेंगे वह भी तुझसे निर्भय होंगे। भगवान के‌ इस प्रकार ‌के कथन पर शिव का ज्वर उन्हें प्रणाम करके चला गया।

उपर्युक्त श्लोकों का पाठ करते हुए रोगी को यह कल्पना करनी चाहिए कि भगवान श्रीकृष्ण ने तीव्र ज्वर का उग्र रूप धारण कर लिया है और वास्तविक ज्वर उनके सामने अल्प शक्ति और अल्प आकार का रह गया है। उसका अस्तित्व समाप्त प्राय लगता है बल्कि देखते-देखते भगवान विष्णु ने बोने से क्षण में इतना विशाल रूप धारण कर लिया है कि तीन पग में सारी पृथ्वी आकाश और अंतरिक्ष को नाप लिया। भगवान के अत्यंत विशाल उग्र और ज्वर के अल्प रूप का ध्यान करना चाहिए और ज्वर की शक्ति को क्षीण होते और कांपते हुए देखना चाहिए । इस क्रिया से निश्चित ही ज्वर की शांति होती है।
जय श्री हरि

 

 रिपोटर :- चंद्रकांत सी पूजारी

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