कस्बे की तिवर्षीय बड़ी पूजा गाजेबाजे के साथ निकली

कस्बे की तिवर्षीय बड़ी पूजा गाजेबाजे के साथ निकली

माँ हुल्का देवी की भव्य शोभा यात्रा मे जुटी भारी भीड़

 जगह जगह पर हुआ हुआ स्वागत दी गई विदाई

कोंच(जालौन)  कस्बे की हर तीन साल में निकलने वाली मां  हुल्का देवी की बड़ी पूजा को लेकर विशाल शोभायात्रा नगर के मुहल्ला मालवीय नगर में स्थित प्राचीन लाला हरदौल के मंदिर से शुरू हुई जो कि शोभा यात्रा नगर मंहत महंत नगर बजरिया होती हुई स्टेट बैंक से होती हुई प्रचनीन चन्दकुआ होकर सागर चौकी  के पास वीर लाला हरदौल मंदिर पहुंची यहां पूजा होने के बाद यहां से बस स्टैंड होकर मार्कण्डेश्वर तिराहा पहुंची औऱ आगे बढ़ी फिर यहां से  पड़री गांव में स्थित अति प्राचीन हुल्का देवी मंदिर पर पहुंची जहां धार्मिक और तांत्रिक अनुष्ठान से बड़ी पूजा संपन्न हुई इस बड़ी पूजा में सबसे पहले डीजे शंख झालर के साथ मां के जय कारो के बीच भक्तो का मेला उमड़ पड़ा नगर की हर गली में पूरी तरह सन्नाटा पसरा रहा भारी भीड़ मां की इस विदाई में लगी रही इस शोभा यात्रा में उरई सदर विधायक गौरी शंकर वर्मा विद्यायक मुलचन्द निरंजन सपा के नेता अशोर राठौर उरई सहित कई वीआईपी लोग मौजूद रहे  मान्यता है कि यह पूजा नगर व क्षेत्र को महामारी, अकाल और दुर्भिक्ष जैसी आपदाओं से अभयदान देने बाली है। इस पूजा के आयोजन को एक शताब्दी से भी ज्यादा समय हो गया है और आज भी उसी आस्था और विश्वास के साथ ‘और भी’ बड़े रूप में यह पूजा जारी है बुंदेलखंड का लोक जीवन भी बड़ा ही विचित्र है, ऐसी ही लोक रीतियों और धार्मिक मान्यताओं के समन्वय से उपजी आस्था का ऐसा रूप है हुल्का देवी की विदाई यानी ‘बड़ी पूजा’ जिसे समूचा नगर बिना किसी जाति भेद या पूजा पद्घति के मनाने के लिये आगे आता है प्रत्येक तीन बर्ष में आयोजित होने बाले इस धार्मिक अनुष्ठान को लेकर यहां मान्यता है कि मैया क्षेत्र को महामारी, अकाल, दुर्भिक्ष जैसी आपदाओं से बचाती हैं। इस आयोजन के प्रादु र्भाव को लेकर यद्यपि कोई अभिलेखीय साक्ष्य और पुष्ट प्रमाण तो नहीं हैं, लेकिन जिन परिवारों की इसमें शुरुआती सहभागिता रही है उनमें एक परिवार स्थानीय मालवीय नगर बजरिया के स्वर्गीय मुनू रजक का है।

उनके पुत्र हरगोविंद के अनुसार सन् 1903 में यहां भयंकर महामारी फैली थी, हालात यह थे कि श्मशान में दो शवों का अंतिम संस्कार संपन्न नहीं हो पाता था तब तक चार शव और वहां पहुंच जाते थे। कस्बे के नागरि क इस महामारी से इतना भयभीत हो गए कि अधिकांश घर खाली हो गए, कुछ ने अपने नाते रिश्तेदारों के यहां शरण ली तो तमाम लोग बाहरी इलाकों में अवस्थित बाग बगीचों में शरण लेने को मजबूर हो गए। इसी बीच बताते हैं कि डाढी नाका स्थित महंतजी के नए बगीचे में नीबू के पेड़ के पास हुल्का देवी ने एक कन्या का रूप धारण कर दर्शन दिए और कहा कि महामारी के डर से कोई भागे नहीं बल्कि उनकी विदाई करे उसके बाद शिवरानी रायकवार, गंभीरा एवं गेंदारानी पर मैया की पहली सवारी आई और इस तरह ‘बड़ी पूजा’ का आयोजन प्रारंभ हुआ।

तीन साल में इस पूजा के आयोजन के पीछे तर्क बताया गया कि उस वक्त लोगों की माली हालत ठीक नहीं थी और हर साल इसका आयो जन कर पाना संभव नहीं हो पा रहा था, सो हर तीन साल में इसके आयो जन की परंपरा बन गई। कालांतर में मैया की सवारी नईबस्ती में रहने बाली रामरती कुठौंदा बाली एवं धोबिन बऊ के ऊपर भी होने लगी। रामरती के निधन के बाद सवारी उनके दामाद गंगाराम पटेल के ऊपर होने लगी।

तीन सेर वेसन से बनाई जाती है हुल्कादेवी की प्रतिमा प्रत्येक तीन बर्ष में आयोजित होने बाली बड़ी पूजा में हुल्का मैया की प्रतिमा का निर्माण तीन सेर वेसन से किया जाता है। इसके अलावा हर पूजा में नये वस्त्रों और आभूषणों से उन्हें अलंकृत किया जाता है। लाला हरदौल मंदिर बजरिया में बड़ी पूजा के दिन पहला हौम देकर यात्रा का श्रीगणेश करने बाले जवाहर वर्मा बताते हैं कि मैया के रथ में जो दो बकरे जोते जाते हैं उनका रंग सुर्ख काला होना अनिवार्य है। ऐसे बकरे तलाशने में यद्यपि काफी कठिनाई होती है लेकिन परंपरा के मुताबिक व्यवस्था कर ली जाती है।

तांत्रिक पूजा है हुल्का मैया की विदाई

कोंच/जालौन: हुल्का मैया की तीन साल में आयोजित होने वाली बड़ी पूजा अर्थात् मैया की विदाई पूरी तरह से तांत्रिक अनुष्ठान है, इसमें वैदिक रीति नीति का कहीं भी प्रयोग नहीं है। नगर के विद्वान ब्राह्मण पं. लल्लूराम मिश्रा व पं. विनोदकुमार द्विवेदी दरोगाजी बताते हैं यद्यपि यह तांत्रिक अनुष्ठान है और इसके क्रियाकलापों में विप्र समाज या वैदिक रीतियों की कोई भूमिका नहीं है लेकिन हुल्का मैया या लाला हरदौल के प्रति विप्र समुदाय या सनातन धर्मावलंबियों की आस्था कम नहीं हो जाती है।

रिपोर्टर : जितेन्द्र कुशवाहा / मुहम्मद

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