ब्रह्माण्ड मे सिर्फ पृथ्वी प्रकृति के विशेष आभूषणो से सुसज्जित हैं जहा झरनो व बहती नदियों की कल कल ध्वनी

शीर्षक" प्रकृति ओर हम "

लेखिका निवेदिता मुकुल सक्सेना झाबुआ

ब्रह्माण्ड मे सिर्फ पृथ्वी प्रकृति के विशेष आभूषणो से सुसज्जित हैं जहा झरनो व बहती नदियों की कल कल ध्वनी, पर्वत व मैदान का हरा भरा सुन्दर वस्त्र, उस पर वृक्ष व लताओ से सज्जित वन उपवन कैसे ना मन मोह ले हर किसी का। फुलो से सुगंधित महकाता उपवन। चहचहाती चिडियां  व वन्य जीवो का आवास ना किसी से बैर ना कोई संक्रामक रोग का डर , बस अपने मे मदमस्त प्रकृति के अनुपम पल जो मूल्यो से खरीदना मुश्किल।  लेकिन अल्पकालिक सुख के लिये लोग अवश्य इस ओर जाते है।

 जब जब लम्बे अवकाश की बारी आती हैं या नव युगल शादी के बाद अगर कही घूमने की सोचता है तो निश्चित वह किसी पहाडी इलाके या बर्फीले इलाके का ही चुनाव करता है और करे भी क्यो ना यहाँ दुनिया की भीड़ से पृथक एकान्त अपने आप वास करता है। कितना दिल खुश कर देने वाला आलम होता है हरियाली के बीच प्रकृति की गोद मे सिर रख आँखो व मस्तिष्क को राहत मिलतीं है वही प्रकृति भी एक माँ की तरह अपने आँचल से ढक कर हमे रक्षा कवच प्रदान करती हैं इन्ही मे से उपजता एक नया विचार व उन विचारो मे सकारत्मकता का प्रसार होता है। फुलो से लदी बेल ह्रदय को आलिंगनबद्ध कर ह्रदय स्पंदन सार्थक कर आनन्दित कर मदहोश देती है। 

वही से उपजा विज्ञान भी सांसो को लयबद्ध करते ये पौधे रुपी "नेचरल ओक्सिजन सिलेंडर "हमसे कुछ ले नही रहे वरन हमे जीवन दान दे रहे। प्रकृति से वेद व वेद से विज्ञान उपजा हैं इसमे कोई दो राय नही है। हम याद करे अगर विज्ञान की पुस्तक मे लिखी परिभाषा-"जीवन जीने के क्रम बद्ध अध्ययन्ं को ही विज्ञान कहते है"। अथार्त हम प्रकृति के अनुरूप जो जीवन जीते हैं वही विज्ञान हैं और जब हम उसके विपरित कोई प्रतिक्रिया सम्पादित कर देते है तब रोग ग्रस्त होना शुरु हो जाता हैं  वही से उत्पन्न होता हैं चिकित्सा विज्ञान जो की वेदो से  उपजा और यही आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति जो मूलत:प्रकृति आधारित होती हैं। 

प्रकृति भी अपने कानून व नियमों से अनुशासित रहती हैं जब हम इसके नियमों व इससे दुर होने लगेगे वही इसका प्रकोप सामने आयेगा ही। तब तक हम सोचकर भी इसे अपने आस पास मेहसूस भी नही कर पाते हैं क्योंकि हम इसे खो चुके होते है इसे स्वयं अपने हाथो से नष्ट कर कंक्रीट के जंगल खडे कर चुके होते है। 

जब जब हम इस प्रकृति से दुर होते जायेगे वही वर्तमान मे तेजी से फलती फूलती कई कृत्रिम रसायन से बनी जल्द राहत देने वाली दवाओ पर(एलोपेथी) आश्रित होते जा रहे।  मे भी पाँच छ वर्ष पहले से श्वसन सम्बंधी एलर्जी से मौसम के संक्रमण काल(अक्टूबर-नवम्बर व फ़रवरी-मार्च) मे छींक व सर्दी बुखार से पीडित रहती थी ऐसे मे मेरे बड़े जेठ जी जो अपने क्षेत्र मे वरिष्ठ अधिवक्ता भी है (श्री दिनेश जी सक्सेना) वो अधिकतर प्राकृतिक चिकित्सा को  अपना कर आरोग्यप्रद जीवन जीते है उन्होने ही मुझे जल नेती क्रिया करने की सलाह दी ।हालाकि वह कयी बार पहले भी इसे करने का कह चुके थे लेकिन लगा क्या होगा लेकिंन फिर ठान लिया कुछ अच्छा हैं तभी बड़े भाईसाहब ने कहा मेने लगत पाँच दिन किया एक हल्का पन और राहत मेहसूस की शरीर व मस्तिष्क मे। तब ये विचार भी आया की सिर्फ जल व नमक ने ही कई दिनो से चल रही इस परेशानी से राहत दी ये भी सत्य हैं कि सर्दी का राइनोवायरस जो की समान्यत: बच्चो मे अधिक व बडो मे उनके प्रतिरक्षा तन्त्र के अनुसार होता है। व बेक्टेरिया स्ट्रेपटोकोक्स नेयुमोनिया बच्चो मे फेफडो तक संक्रमण पहुचाता आया इसके भी कयी अन्य वायरस व बेक्टेरिया इसके मुख्य कारकों मे रहते आये है।

 शिशुओ का शरीर नाजुक होता हैं लेकिन उसे मजबुत कैसे बनाना हैं ये हम पर निर्भर करता है या प्रकृति की छाँव में या मौसम अनुकूल या नकली हवा (एयरकन्डिशनर व कुलर) में समाए रहने का। जो निश्चित रोगो का डेरा व घेरा है। लेकिन तकनीकी विज्ञान की इस मोहमायावी तकनीकी हवा से हम निकल नही पा रहे। 

मेने मेहसूस किया एक श्रमिक महिला जिसका शिशु तीन या चार माह का होगा जो की एक कंसट्रकशन साइट पर तगारी से रेती व ईट उपरी मंजिलो तक पहुचा रही व शिशु कपडे में लिपटा तपती रेती पर खुशी खुशी खेल रहा कपडे भी नाम मात्र के शरीर पर महिनो व सालो ऐसे ही निकल जाते व बच्चा इन्ही रेती व ईटो के मध्य खेलता रहता न कोई पंखा ना कुलर न ही खाने मे ना नुकर। जो चूल्हे पर रोटी बनती वही सब खाते व रोग रहित जीवन जीते कारण वह प्रक्रती के निकट अब भी है जबकी वही मध्यम वर्गीय परिवार व उच्च माध्यम वर्ग के शिशु व बड़े लोग भी इन हालातो में बीमार पड जाए।

मे जब इस छोटे से अंचल मे आयी थी तब यहा आस पास भरपुर हरियाली व जंगल थे जो वर्तमान मे मकानो के जंगलो मे बदल गये। 

बहरहाल,आज वह दिन आ गया जब कोरोना वायरस के संक्रमण ने  मानव शरीर को ऑक्सिजन की मांग करने की याद दिला दी। 

प्रकृति के कानून अनुसार इन्सान को सबसे बडी चपत है कोरोना संक्रमण से जूझना। जहा शरीर पुर्ण ऑक्सीजन प्राप्त नही कर पा रहा। हालाकि चिकित्सा विज्ञान कहा पीछे रहेगा देखीये ना वेकसीन भी बन गया और जल्दी ही किसी अन्य दवा का निर्माण भी हो ही जायेगा पर क्या ये   पृकृति के विपरित नकली जीवन नही होगा? ये सर्वविदित हैं आज हमारी और प्राकृतिक वातावरण के मध्य बहुत दुरी बन चुकी है।

 "जिम्मेदारी हमारी "

* प्राकृतिक वातावरण अपने आस पास निर्मित रखे।

* सकारत्मक विचार के साथ योग पद्धति को अपने जीवन का हिस्सा बनाये।

* पेड पौधे सजीव हैं अथार्त इनमे भी आत्मा का वास होता हैं ये मांगते नही कुछ वरन दुगुना देते है।

 रिपोटर:  चंद्रकांत सी पूजारी

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