नवसस्येष्टि पर्व पर आर्य समाज ने किया यज्ञ
मिर्जापुर : आरोग्य, सौहार्द एवं उल्लास व आषाढ़ी के नई रबी की फसल व बसंत ऋतु के आगमन पर बासंतिक नवसस्येष्टि पर्व होलिका व होली पर आर्य समाज व महर्षि दयानन्द काशीशास्त्रार्थ स्मृति न्यास के सदस्यों द्वारा आर्य समाज भोजूबीर में यज्ञ, सत्यार्थ प्रकाश व आर्याभिनव के पाठ के पश्चात् संगोष्ठी का आयोजन हुआ इस अवसर पर आर्य रवि प्रकाश बरनवाल ने कहा कि क्या प्रचलित कहानी हिरण्यकश्यप,प्रहलाद व होलिका के पहले होली नहीं मनाया जाता था वैदिक काल से ही मनाया जाता था ! जो कि नवसस्येष्टी यज्ञ के रूप में नये अन्न के आने पर परमपिता परमात्मा का धन्यवाद करने के लिए फाल्गुन पूर्णिमा को सामूहिक रूप से बड़े स्तर पर यज्ञ के द्वारा होता था ! नव यानी नया,सस्य यानी फसल तथा ईष्टि यानी यज्ञ किसी भी अनाज का ऊपरी पर्त होलिका एवं किसी भी अनाज के गिरी को प्रह्लाद कहा जाता है प्राचीनकाल से ही आर्य लोगों का यह नियम रहा है कि कोई भी व्यक्ति बिना यज्ञ किये नये अन्न का भोग न करे ! पहले परमात्मा का धन्यवाद,फिर अन्न का उपयोग हमारे धर्म ग्रन्थों और गृह्यसूत्रों में आया है कि नया अन्न उत्पन्न होने पर नवसस्येष्टि यज्ञ करें और जब तक उस अन्न के सेवन से पहले होम/हवन/यज्ञ न कर लें तब तक उसे न खाएँ ! पर्व पर बड़े बड़े यज्ञों का आयोजन कर उसमें नए अन्न की आहुतियाँ देने से प्रदूषण को नियंत्रण में रखने का प्रयास भी किया जाता था धीरे धीरे उस यज्ञ और पर्व ने विकृत रूप धारण कर लिया लोग होली के रंगों में रंगते गए तथा परमात्मा और यज्ञ को भूलते गए इसी पुरातन परम्परा को जारी रखते हुए देश भर के सभी आर्य समाजों में नवसस्येष्टि यज्ञ का सामूहिक आयोजन होता है ! प्रमोद आर्य 'आर्षेय'
ने कहा कि होली आजकल असभ्यता का त्योहार माना जाने लगा है ऐसा इस कारण हुआ है क्योंकि, इसका रूप विकृत हो गया है अन्यथा यह भी चार प्रमुख त्योहारों में से एक है ! अन्य तीन त्योहार हैं रक्षाबन्धन,विजयदशमी एवं दीपावली वास्तव में होली ! आरोग्य, सौहार्द एवं उल्लास का उत्सव है यह फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है और आर्यों के वर्ष का अन्तिम त्योहार है होलिका किसी स्त्री का नाम नहीं था यह गलत कहानी रची है और न ही ऐसा सम्भव है कि आग में औरत जल जाऐ और बच्चा बच जाऐ बेशक कितना भी ईश्वर भक्त हो आग्नि अपना धर्म,जलाना नहीं छोड़ेगी ! इस अवसर पर चन्द्रमा प्रसाद आर्य ने कहा कि किसी भी अनाज के ऊपरी पर्त को होलिका कहते हैं ! जैसे-चने का पट पर (पर्त), मटर का पट पर (पर्त), गेहूँ या जौ का गिद्दी से ऊपर वाला पर्त इसी प्रकार चना,मटर,गेहूँ, जौ की गिदी को प्रह्लाद कहते हैं ! होलिका को माता इसलिए कहते हैं कि वह चना आदि का निर्माण करती है अर्थात् माता निर्माता भवति यदि यह पर्त पर (होलिका) न हो तो चना,मटर रुपी प्रह्लाद का जन्म नहीं हो सकता ! जब चना,मटर,गेहूँ अथवा जौ भुनते हैं, तो वह पट पर या गेहूँ, जौ की ऊपरी खोल पहले जलता है, इस प्रकार गीरी/प्रह्लाद बच जाता है होली नई ऋतु एवं नई फसल का उत्सव है इसका प्रह्लाद एवं उसकी बुआ होलिका से कोई सम्बन्ध नहीं है ! होलिका की कथा प्रसिद्ध अवश्य है ! किन्तु वह कथा इस उत्सव का कारण नहीं है यह उत्सव तो प्रह्लाद एवं होलिका की कहानी के पहले से ही मनाया जा रहा है ! वसंत ऋतु में ही वृक्षों पर नये पत्ते उगते हैं । पशुओं की रोमावलि नई होने लगती है पक्षियों के नये पंख निकलते हैं ! कोयल की कूक एवं मलय पर्वत की वायु, इस नवीनता को आनन्द से भर देती है इतनी नवीनताओं के साथ आने वाला नया वर्ष ही तो वास्तविक नव वर्ष है,जो होली के दो सप्ताह पश्चात् आता है इस प्रकार होलिकोत्सव या होली नई फसल,नई ऋतु एवं नव वर्षागमन का उत्सव है इसी का विकृत रूप लकड़ी के ढेर जलाना है ! गुलाब जल अथवा इत्र का आदान-प्रदान करना,मधुर सामाजिकता का परिचायक था ! इसी का विकृत रूप गुलाल मलना है ऋतु-परिवर्तन पर रोगों एवं मौसमी बुखार से बचने के लिए टेसू के फूलों का जल छिड़कना औषधिरूप था इसी का विकृत रूप रंग फेंकना है प्रसन्न होकर आलिंगन करना एवं संगीत-सम्मेलन करना प्रेम एवं मनोरंजन के लिए था इसी का विकृत रूप हुल्लड़ करना एवं स्वाँग भरना है कीचड़ फेंकना,वस्त्र फाड़ना,मद्य व भाँग का सेवन करना तो असभ्यता के स्पष्ट लक्षण हैं ! इसे त्यागना चाहीए होलक के बारे में उदय प्रताप इंटर कॉलेज के इतिहास के प्रवक्ता शिवनारायण सिंह गौतम ने कहा कि भाव प्रकाश के अनुसार 'अर्द्धपक्वशमीधान्यं तृणभ्रष्टैः होलकः' अर्थात् तिनकों को अग्नि में भूने हुये अधपके शमीधान्य ( फली वाले अन्न ) को होलक होला कहते हैं ! प्राचीन काल में रबी की नवीन फसल के आने पर नये अन्न का होम होने के कारण इस अवसर को नवसस्येष्टि , होलकोत्सव या होलकेष्टि होता था ! इतने पवित्र त्योहार में आज फूहड़ता व अश्लीलता आ गयी है अतः इसको त्यागकर और त्याग,समर्पण एवं सात्त्विक उत्सव को स्वादिष्ट पकवान व केवल प्राकृतिक रंगो से मनाना चाहिए व हानिकारक रंग तथा बलात किसी को रंग नहीं लगाना चाहिए । होली के नाम पर लकड़ी के ढेर जलाना, कीचड़ या रंग फेंकना, गुलाल मलना, स्वाँग रचाना, हुल्लड़ मचाना, शराब पीना, भाँग खाना आदि विकृत बातें हैं ।
सामूहिक रूप से नवसष्येष्टि अर्थात् नई फसल के अन्न से बृहद् यज्ञ करना पूर्णतः वैज्ञानिक था नई ऋतु के आगमन पर रोगों से बचने के लिए बृहद् होम करना वैज्ञानिक आवश्यकता भी है होली (फाल्गुन सुदि पूर्णिमा ) का दूसरा नाम 'नवसस्येष्टि यज्ञ' भी है ! इस अवसर पर नवसस्येष्टि यज्ञ करें और आषाढ़ी की नई फसल की आहुतियाँ देकर ईश्वर का धन्यवाद करें इस पर्व का प्राचीनतम नाम वासन्ती नव सस्येष्टि है अर्थात् बसन्त ऋतु के नये अनाजों से किया हुआ यज्ञ, परन्तु होली होलक का अपभ्रंश है । जैसा कि शब्द कल्पद्रुम कोष में कहा है 'तृणाग्निं भ्रष्टार्थ पक्वशमी धान्य होलकः' तथा भाव प्रकाश में आया है कि 'अर्धपक्वशमी धान्यैस्तृण भ्रष्टैश्च होलकः होलकोऽल्पानिलो मेदः कफ दोष श्रमापह' अर्थात् तिनके की अग्नि में भुने हुए (अधपके) शमो-धान्य (फली वाले अन्न) को होलक कहते हैं ! यह होलक वात-पित्त-कफ तथा श्रम के दोषों का शमन करता है !
नवसस्येष्टि का दूसरा नाम "नव सम्वतसर" है मानव सृष्टि के आदि से आर्यों की यह परम्परा रही है कि वह नवान्न को सर्वप्रथम अग्निदेव पितरों को समर्पित करते थें,तत्पश्चात् स्वयं भोग करते थें हमारा कृषि वर्ग दो भागों में बँटा है ! वैशाखी और (2) कार्तिकी इसी को क्रमशः वासन्ती और शारदीय नवसस्येष्टि एवं रबी और खरीफ की फसल कहते हैं फाल्गुन पूर्णमासी वासन्ती फसल का आरम्भ है अब तक चना,मटर,अरहर व जौ आदि अनेक नवान्न पक चुके होते हैं ! अतः परम्परानुसार पितरों देवों को समर्पित करने को नवसस्येष्टि यज्ञ करते हैं । जैसा कि कहा गया है,अग्निवै देवानाम मुखं' अर्थात् अग्नि ! देवों-पितरों का मुख है जो अन्नादि शाकल्यादि आग में डाला जायेगा,वह सूक्ष्म होकर पितरों देवों को प्राप्त होगा आर्यों में चातुर्य्यमास यज्ञ की परम्परा है ! वेदज्ञों ने चातुर्य्यमास यज्ञ को वर्ष में तीन समय निश्चित किये हैं ! आषाढ़ मास, कार्तिक मास (दीपावली) और फाल्गुन मास (होली)
यथा 'फाल्गुन्या पौर्णामास्यां चातुर्मास्यानि प्रयुञ्जीत मुखं वा एतत सम्वत् सरस्य यत् फाल्गुनी पौर्णमासी आषाढ़ी पौर्णमासी' अर्थात् फाल्गुनी पौर्णमासी,आषाढ़ी पौर्णमासी और कार्तिकी पौर्णमासी को जो यज्ञ किये जाते हैं वे चातुर्यमास कहे जाते हैं ! आग्रहाण या नव संस्येष्टि अंत में उन्होंने यह भी कहा कि आप प्रतिवर्ष होली जलाते हैं उसमें आखत डालते हैं जो आखत हैं वे अक्षत का अपभ्रंश रुप है ! अक्षत चावलों को कहते हैं और अवधि भाषा में आखत को आहुति कहते हैं कुछ भी हों ! चाहे आहुति हो,चाहे चावल हों,यह सब यज्ञ की प्रक्रिया है आप जो परिक्रमा देते हैं यह भी यज्ञ की प्रक्रिया है ! क्योंकि आहुति या परिक्रमा सब यज्ञ की प्रक्रिया है, सब यज्ञ में ही होती है आपकी इस प्रक्रिया से सिद्ध हुआ कि यहाँ पर प्रतिवर्ष सामूहिक यज्ञ की परम्परा रही होगी ! इस प्रकार चारों वर्ण परस्पर मिलकर इस होली रुपी विशाल यज्ञ को सम्पन्न करते थें आप जो गुलरियाँ बनाकर अपने-अपने घरों में होली से अग्नि लेकर उन्हें जलाते हैं ! यह प्रक्रिया छोटे-छोटे हवनों की हैं सामूहिक बड़े यज्ञ से अग्नि ले जाकर अपने-अपने घरों में हवन करते थें ! बाहरी वायु शुद्धि के लिए विशाल सामूहिक यज्ञ होते थे और घर की वायु शुद्धि के लिए छोटे-छोटे हवन करते थें दूसरा कारण यह भी था जैसा कि हमसब जानते भी हैं कि ऋतु सन्धिषु रोगा जायन्ते'अर्थात् ऋतुओं के मिलने पर रोग उत्पन्न होते हैं ! उनके निवारण के लिए यह यज्ञ किये जाते थें ! यह होली हेमन्त और बसन्त ऋतु का योग है रोग निवारण के लिए यज्ञ ही सर्वोत्तम साधन है अब आपसब,होली को प्राचीनतम वैदिक परम्परा के आधार पर समझ गये होंगे कि होली नवान्न वर्ष का प्रतीक है !
रिपोर्टर : अनिल
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