संविधान और उसके स्तंभ ( भाग चार)

लेखिका दिप्ती डांगे मुंबई महाराष्ट्र

गतांक से आगे

लोकतांत्रिक प्रणाली को विश्व की सबसे अच्छी प्रणाली इसलिए माना जाता है क्योंकि इसका कोई विकल्प नहीं है।
हालांकि यह बात उन देशों या लोकतंत्र के लिए सच साबित होती है जहां इस प्रणाली के सभी मानकों को वास्तविक रूप से लागू किया या अपनाया जाता है। दुनिया के ज्यादातर देश कहने के लिए लोकतंत्र होने का दम तो भरते हैं लेकिन है नहीं।हर देश की स्थिति एक जैसे नही होती क्योंकि एक लोकतंत्र की सभी गुण दशाएं हर जगह अनुकूल नहीं होती हैं। लोकतंत्र बहुत अच्छी व्यवस्था तब हो सकती है, जहां पर लोग शिक्षित और अपने अधिकारों और कर्तव्यों के लिये जागरूक हों, जहाँ निहित स्वार्थ के लिए लोग राजनीति को अपना पेशा नहीं समझते हों। लोकतांत्रिक व्यवस्था ठीक माचिस की तरह है, जिससे रोशनी के लिये दिया भी जलता है और घर भी जल सकता है ।

भारत देश के संदर्भ में देखे तो स्वतंत्रता के बाद भारत के संविधान की प्रस्तावना में, भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने का संकल्प लिया गया है।।लेकिन हमारे संविधान का लगभग दो-तिहाई भाग अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कानून पर आधारित है। इसका यह अर्थ हुआ कि गुलामी के शासन की पुरानी अवधारणा को स्वतंत्र भारत के संविधान में जगह दे दी गयी और जो जटिल और आम नागरिक के समझ के बाहर है। जिसके कारण भरपूर संसाधन होते हुए भी आज हमारा देश पिछड़ेपन, महँगाई और भ्रष्टाचार से ग्रसित है।हमारे संविधान में सुधार के नाम पर एक के बाद एक संशोधन होते जा रहे, लेकिन ये सभी संशोधन आमजनता के लिए तो ऊँट के मुँह में जीरे के समान नगण्य सिद्ध हुए।
दूसरी कमी,भारत मे निरक्षरता, लिंग भेदभाव, गरीबी, सांस्कृतिक असमानता, राजनीतिक प्रभाव, जातिवाद और सांप्रदायिकता जैसे समस्यायों का सामना करना पड़ता जो लोकतंत्र के सुचारु कामकाज मे बाधाएं उत्पन्न करते हैं और ये सब कारक भारतीय लोकतंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। लेकिन फिर भी हमारा लोकतंत्र कई उतार चढ़ावों और चुनौतियों का सामना करते हुए,समय के साथ समृद्ध होता गया, पिछले सात दशकों से भारत, दुनिया के उन गिने-चुने देशों में से एक है, जहां लोकतांत्रिक प्रणाली ख़ूब फल फूल रही है। लोकतंत्र का सबसे मजबूत स्तम्भ विधायिका होती है। जो देश की दिशा और दशा निर्धारित करती है।जिससे साथ दूसरे स्तम्भ मिलकर देश को मजबूती प्रदान करते है। ऐसे में केवल राजनीतिक दलों के भीतर, लोकतंत्र को मज़बूत बनाने के लिए एक मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत है।
पर क्या राजनीतिक पार्टियों संविधान के अनुसार कार्ये कर रही है?
नही, क्योंकि जब देश स्वतंत्र हुआ था तो असामाजिक तत्व निर्भय हो गये थे और प्रारम्भिक अराजकता को देखकर जनता कहती थी कि इससे अच्छा अंग्रेजों का शासन था। किंतु आज तुलना अंग्रेजों के शासन से न होकर राजनीतिक दलों अथवा गठबंधन की सरकारों से होती है। क्योंकि आज राजनीतिक दलों में ही लोकतंत्र एक बड़ी चुनौती बन गया है। परिवाद वाद, बड़े नेतायों की मनमानी,टिकटों का बंटवारा मे पारदर्शिता न होना राजनीतिक दलों मे आम बात हो गयी है। जिससे उम्मीदवार जो समाज को प्रभावित करता हो या जिनके पास पैसों की कमी नहीं हो। चुनाव के लिए पार्टी के टिकट वितरण के दौरान ऐसे लोगों को ही तरज़ीह दी जाती है। जिससे जातिवाद,भ्रष्टाचार और अपराधीकरण को बढ़ावा मिलता है। संविधान में
अंग्रेजों के जमाने के कानूनों के कारण राजनीतिक दलों पर नियंत्रण की कोई वैधानिक और बाध्यकारी व्यवस्था नहीं हुई। जिसका असर ये हुआ कि देश मे एक शोषक वर्ग का जन्म होने लगा। राजनीतिक पहुँच वाले व्यक्ति कोई भी अपराध करके साफ बच निकल जाते है। प्रशासन और न्यायालय को डरा-धमकाकर या धन से साफ बच जाते तथा जनता को धन,शराब का लालच देकर या जातियों में बांटकर उनको वोटबैंक बनाकर चुनाव जीते जा रहे हैं। जिससे विधायिका क्षेत्रवादी और जातिवादी हो गयी है। वोट राजनीति और सत्ता की लालसा के कारण भ्रष्टाचार देश की जड़ तक पहुँच गया है।
जहां विधायिका को जनता की अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व करना चाहिए था।वो विधायिका कुछ लोगो के हाथों का खिलौना बन गयी। नतीजतन क्षेत्रवाद, सांप्रदायिकता और दलबंदी दुर्भाग्यवश असहिष्णुता की प्रवृत्ति के साथ जातिवाद बढ़ गया।और लोकतंत्र पूंजीवाद लोकतंत्र बन गया।
जहां धन और ताकत सर्वोपरि हो गए।जिसके कारण संसद में धीरे-धीरे चर्चा, बहस और मंथन नगण्य होता जा रहा है और अराजकता, अमर्यादित आचरण और शब्दों का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है । विपक्ष, सत्ता पाने की लालसा मे संसद को रोड पर ला दिया गया। लोकतंत्र के नाम पर देशद्रोही ताकतों के साथ मिलकर बेवजह रोड ब्लॉक करना धरना देने और सरकारी संपत्ति को नष्ट करना अब आम बात होती जा रही है। और जनता को बरगलाते है।
जो जनता के सेवक होने थे वो राजा बन कर मनमानी करने लगे। मनचाहा वेतन और पेंशन लेने लगे। जिसका असर दूसरे स्तम्भो पर भी पड़ा। उनमे भी भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, रिश्वतखोरी को बढ़ावा मिला।
कार्यपालिका अपने आप को स्वयंभू सर्वशक्तिशाली समझती है।न विधायिका की परवाह है और न न्यायपालिका की। भले ही विधायिका कितने ही कानून बना दे, अदालतें कितने ही फैसले कर दे-होगा तो वही जो अफसरशाही चाहेगी! अदालतों ने फैसलों की अनुपालना नहीं होने पर अफसरों को लताड़ पिलाई। लेकिन ज्यादातर अफसर चिकने घड़े बन चुके हैं। वे करते वही हैं जो उनको रास आए।

 

रिपोटर :चंद्रकांत पूजारी

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