किशोरवय बदलाव औऱ पीरियड्स पर संवाद से हिचक क्यों -डॉ मीनाक्षी

किशोरवय बदलाव औऱ पीरियड्स पर संवाद से हिचक क्यों?-डॉ मीनाक्षी
सैनेटरी पैड्स की जगह कॉटन पैड्स किफायती औऱ स्वास्थ्यकर हैं
चाइल्डकंजर्वेशन फाउंडेशन की 34 वी राष्ट्रीय संगोष्ठी सम्पन्न

मध्यप्रदेश/  भोपाल: किशोरियों में मासिकधर्म ( पीरियड्स) एक सहज शारीरिक विकास प्रक्रिया है लेकिन भारतीय लोकजीवन में आज भी झिझक औऱ एक वर्जित विषय माना जाता है।जानकारी के आभाव में हमारी माँ,बहन,बेटियां इस प्रक्रति प्रदत्त शारीरिक विकास क्रम पर अनावश्यक अलगाव औऱ कष्ट झेलने पर विवश रहती है।देश की ख्यातिनाम फर्टिलिटी विशेषज्ञ डॉ मीनाक्षी भाराथ ने चाइल्ड कंजर्वेशन फाउंडेशन की 34 वी राष्ट्रीय ई संगोष्ठी में आज इस विषय पर बेहद उपयोगी मार्गदर्शन दिया।
उन्होंने कि किशोरवय बालिकाओं को उनकी माँ एवं शिक्षकों को पीरियडस पर स्ववस्थ्य चर्चा करनी चाहिये क्योंकि आम घरेलू भारतीय जीवन में लोग इस पर वर्जनाओं के साथ जीना पसंद करते है इसलिए बेटियां जिससे भी पहली बार इस विषय पर सुनती है उसकी प्रमाणिकता समझे बिना उसे सच मान लेती है।इन परिस्थितियों में गलत औऱ अवैज्ञानिक धारणाएं  स्थाई भाव के साथ जीवन का हिस्सा बन जाती हैं।डॉ मीनाक्षी के अनुसार माँ एवं पिता दोनों की जबाबदेही है कि वह अपनी बेटियों में किशोरवय शारीरिक बदलाव एवं पीरियड्स को सहजता के साथ जीवन के  सामान्यीकरण के साथ जोड़कर आगे बढ़ें।उन्होंने बताया कि7 से 18  बर्ष के मध्य बेटियों में यह शारीरिक बदलाव आते है।उन्होंने बताया कि पीरियड्स के साथ एक समानन्तर कारोबार दुनियां में खड़ा हो गया है जो सिंगिल यूज सेनेटरी नैपकिन की वकालत करता है लेकिन यह पैड्स शरीर एवं पर्यावरण के साथ आर्थिक रूप से नुकसानदेह हैं।प्लास्टिक से निर्मित इन पैड्स के स्थान पर उन्होंने सूती कपड़े से बने परम्परागत भारतीय पैड्स के अधतन उत्पाद के उपयोग को बढ़ावा देनें की आवश्यकता पर जोर दिया ।डॉ मीनाक्षी के अनुसार कपड़े से बने पैड्स आजकल नई तकनीकी के साथ निर्मित हो रहे है जो औसतन 4 रुपए में उपलब्ध होता है जबकि बाजार में छाए हुए पैड्स उपयोग करने पर एक पीरियड्स  में 30 से 140 रुपए का खर्च होता है।कॉटन पैड्स 2 से के साल तक  उपयोग में लाये जा सकते है।इनके विनष्टीकरण के लिए किसी विशिष्ट तकनीकी की जरूरत नही होती है जबकि सिगिल यूज पैड्स मूलतः प्लास्टिक के होने के कारण पर्यावरणीय दृष्टि से खतरनाक है।डॉ मीनाक्षी ने बताया कि सामान्यतः पीरियड्स की अवधि 3 से 5 दिन होती है और इसमें अधिकतम 30 से 60 एमएल रक्त स्राव होता है।इसलिए यह धारणा गलत है कि पीरियड में अत्यधिक खून निकलने से किशोरियों में कमजोरी आ जाती है।उन्होंने बताया कि इस अवधि में नियमित सिर धोया जा सकता है और दर्द से निवारण के लिए सबसे उत्तम विधि योग या नियमित व्यायाम है।जो महिलाएं नियमित व्यायाम करती है उन्हें मासिक पीड़ा से मुक्ति मिलती है।उन्होंने बताया कि कॉटन पैड्स के अलावा मेंस्ट्रुअल कप भी पीरियड्स में हाइजीन के नजरिये से बेहतरीन विकल्प है जो करीब 10 साल तक उपयोग में लाया जा सकता है और इसकी कीमत भी 800 से 2000 रुपए होती है।उन्होंने बताया कि एक महिला को वर्ष भर में करीब 65 दिन इस पीरियड्स की पीड़ा को सहन करना पड़ता है।
सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में इस विषय पर गरीब बस्तियों में काम कर रहे सत्यम मिश्रा ने संगोष्ठी में अपने जमीनी अनुभव साझा करते हुए बताया कि आज भी समाज के बड़े तबके में  पीरियड्स पर बात करना वर्जित हैं इसीलिए लाखों महिलाएं स्वास्थ्य के नजरिये से एक यंत्रणा झेलने को विवश है श्री मिश्र के अनुसार उनके एक सर्वेक्षण में महिलाओं द्वारा आज भी पीरियड्स की रोक के लिए राख के उपयोग के मामले प्रकाश में आये है।

उन्होंने बताया कि पीरियड्स  का मतलब समाज और सरकार ने केवल सेनेटरी नैपकिन तक सीमित करके रख दिया है जबकि महिलाओं को इस विषय पर आजादी मिलनी चाहिये कि वे पैड्स,कॉटन पैड्स,मेंस्ट्रुअल कप,टेम्पोन्न का उपयोग करें।श्री मिश्रा के अनुसार एक वर्ग विशेष में तो सेनेटरी पैड्स के उपयोग पर प्रतिबंध है क्योंकि वे मानते है कि इसमें रुई का इस्तेमाल होता और उनके धर्म मे ऐसा करना वर्जित है।श्री मिश्र ने बताया कि उनकी संस्था ने ऐसे परिवारों के सामने यह बताया कि पैड्स में रुई नही लकड़ी के एक परिष्कृत बुरादे का उपयोग किया जाता है।उन्होंने बताया कि पैड्स का कारोबार ने पीरियड्स की बुनियादी अवधारणा को कब्जे में ले लिया है।
झाबुआ में जनजाति किशोरियों के मध्य काम कर रही श्री मति निवेदिता सक्सेना ने अपने अनुभव साझा करते हुए बताया कि पिछले कुछ बर्षों में जनजातीय लड़कियों के मध्य कुपोषण के समानन्तर हाइजीन बड़ी समस्या के रुप में सामने आया है क्योंकि यह वर्ग आधुनिकीकरण की मध्य अवस्था से गुजर रहा है इसके चलते वे न तो पूर्णत आधुनिक जीवन पर आए है न अपने परम्परानिष्ठ जीवनशैली पर टिक पा रहे है।

संगोष्ठी का संचालन चाईल्डकंजर्वेशन फाउंडेशन के सचिव डॉ कृपाशंकर चोबे ने किया उन्होंने इस बात को सामयिक आवश्यकता के साथ जोड़ा बदलती जीवनशैली में किशोरवय बदलाब पर आम घरों में स्वस्थ्य एवं वैज्ञानिक संवाद से बचपन को समुन्नत किया जा सकता है। ई संगोष्ठी में मप्र के अलावा उप्र,बिहार, आसाम, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा,मणिपुर, गोवा, महाराष्ट्र, दिल्ली,चंडीगढ़ ,से भी बाल अधिकार कार्यकर्ता एवं जेजेबी सीडब्ल्यूसी सदस्यों ने भाग लिया।

रिपोटर: चंद्रकांत  पूजारी

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