"राज्य कर्मचारी: व्यवस्था का पहिया या घिसा हुआ औजार?"

आज का कटु सत्य यह है कि सरकारी तंत्र, जो कभी 'जनसेवा' का प्रतीक हुआ करता था, अब VIP संस्कृति का दरबारी तंत्र बन चुका है। वहाँ आम कर्मचारी के लिए न तो सम्मान बचा है, न ही भरोसा। लगातार परिवार उजड़ रहे हैं, आत्माएं टूट रही हैं, और सरकारी व्यवस्था आंख मूंदे तमाशा देख रही है।

1. सेवानिवृत्ति नहीं, अपमान की प्रक्रिया
किसी भी कर्मचारी का जीवन तब सबसे अधिक सम्मान का हकदार होता है जब वह सेवा से विदा हो रहा हो। लेकिन उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में ये विदाई अपमान, उत्पीड़न और उपेक्षा की लंबी प्रक्रिया में बदल चुकी है। पेंशन की फाइलें महीनों तक अटकाई जाती हैं, चिकित्सा लाभों की स्वीकृति में अड़ंगे लगाए जाते हैं, और कर्मचारी को अदालतों की चौखट पर धकेला जाता है।

2. सरकारी व्यवस्था या अफसरशाही का किला?
सच्चाई ये है कि सरकारें भले बदल रही हों — कांग्रेस गई, सपा-बसपा बीतीं, अब भाजपा सत्ता में है — लेकिन प्रशासनिक ढांचा जस का तस है। अफसरशाही ने हर सरकार को अपनी कार्यशैली में ढाल लिया है। परिणामस्वरूप, नीतियाँ तो बनती हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर उन्हें लागू करने में जानबूझकर शिथिलता बरती जाती है।

3. VIP संस्कृति: लोकतंत्र का अपमान
जहाँ एक ओर करोड़ों कर्मचारियों की समस्याएँ अनसुनी पड़ी हैं, वहीं दूसरी ओर अफसरों और नेताओं के लिए विशेष प्रोटोकॉल, विशेष सुविधाएँ और विशेष संवेदनशीलता दिखाई जाती है। यही असंतुलन व्यवस्था की जड़ें खोखली कर रहा है।

4. सर्विस ट्रिब्यूनल से लेकर हाईकोर्ट तक: न्याय की महंगी लड़ाई
कर्मचारी के पास शिकायत का एकमात्र विकल्प होता है — सर्विस ट्रिब्यूनल। लेकिन वहाँ न्याय की गति इतनी धीमी है कि कई बार कर्मचारी की सेवा समाप्त हो जाती है, जीवन समाप्त हो जाता है, पर फैसला नहीं आता। अंत में हाईकोर्ट जाना पड़ता है, जहाँ न सिर्फ खर्च बढ़ता है, बल्कि मानसिक, सामाजिक और पारिवारिक उत्पीड़न भी चरम पर पहुंचता है।

5. प्रशासनिक सुधार: क्या सिर्फ दिखावे की कवायद?
सरकार दावा करती है कि प्रशासनिक सुधार हो रहे हैं। लेकिन सुधार सिर्फ फाइलों में, बैठकों में और ट्वीट्स में नजर आते हैं। असलियत यह 
है कि ज़्यादातर अधिकारी नहीं चाहते कि सिस्टम में पारदर्शिता और जवाबदेही आए, क्योंकि इससे उनके विशेषाधिकारों पर आंच आती है।

6. मीडिया की चुप्पी: सोची-समझी रणनीति?
बड़े चैनलों और अखबारों के पास TRP के लिए राजनीति, अपराध, और बॉलीवुड हैं — लेकिन एक कर्मचारी की लड़ाई, उसका संघर्ष, उसका अवसाद… इनकी कोई ‘खबर’ नहीं बनती। क्यों? क्योंकि यहां विज्ञापनदाता सरकार है, और सरकार की छवि खराब नहीं होनी चाहिए। खास बात ये है कि अब लोग खुलकर इस मुद्दे को उठाना शुरू कर चुके हैं .. जैसे प्रदेश सचिव UP,सहप्रभारी महाराष्ट्र राष्ट्रीय लोकदल, वरिष्ठ अधिवक्ता शर्मा विवेक पांडेय ने ये मुद्दा उठाया है ....

 आज जरूरत है उस बदलाव की, जो केवल चुनावी घोषणापत्रों तक सीमित न हो।जरूरत है उस नेतृत्व की, जो अफसरों से सवाल पूछने का साहस रखता हो।जरूरत है उस व्यवस्था की, जहाँ कर्मचारी सम्मान के साथ रिटायर हो, अपमान के साथ नहीं।मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अब ये समझना होगा कि केवल बड़ी योजनाएं, हाई-टेक घोषणाएं और अधिकारियों की मीटिंग्स से सुशासन नहीं आता।जब तक कर्मचारियों को न्याय, सम्मान और सुरक्षा नहीं मिलेगी — उत्तर प्रदेश की व्यवस्था केवल एक "सिस्टम" रहेगी, "सेवा" नहीं।

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