"इमाम हुसैन की शहादत और मुहर्रम में मातम की वजह"

मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना होता है, और इसका विशेष महत्व शिया मुस्लिम समुदाय के लिए होता है। विशेष रूप से 10वीं तारीख, जिसे आशूरा कहा जाता है, शिया मुसलमानों के लिए अत्यंत शोक का दिन होता है। इस दिन की सबसे प्रमुख घटना करबला की लड़ाई है, जिसमें पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और उनके परिवार , साथियों को यज़ीद की फौज ने शहीद कर दिया था।

शिया मुसलमान खुद को चोट क्यों पहुंचाते हैं:

1. इमाम हुसैन की शहादत की याद में शोक प्रकट करना:
शिया मुसलमान इमाम हुसैन और उनके अनुयायियों की करबला में हुई दर्दनाक शहादत को याद करते हुए मातम करते हैं। वे अपने शरीर को जंजीरों, चाकुओं या तलवार जैसे औजारों से मारकर खुद को चोट पहुंचाते हैं ताकि वे उस दुख और पीड़ा को महसूस कर सकें जो इमाम हुसैन और उनके परिजनों ने सही।

2. संवेदना और एकजुटता का प्रतीक:
खुद को चोट पहुंचाना एक तरह से यह जताना होता है कि वे इमाम हुसैन की तकलीफ में शरीक हैं। यह भावनात्मक और आध्यात्मिक एकजुटता दिखाने का तरीका है।

3. धार्मिक परंपरा और भक्ति का रूप:
कई शिया समुदायों में यह परंपरा सदियों से चली आ रही है और इसे भक्ति का उच्चतम रूप माना जाता है। वे मानते हैं कि यह कार्य उन्हें इमाम हुसैन के रास्ते पर चलने और अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने की प्रेरणा देता है।

यह सब हर शिया समुदाय में नहीं होता
यह ध्यान देना जरूरी है कि सभी शिया मुसलमान खुद को चोट नहीं पहुंचाते। कई जगहों पर केवल:मजलिस (शोक सभा) होती है,इमाम हुसैन के जीवन पर भाषण दिए जाते हैं,नोहे और मर्सिये (शोकगीत) गाए जाते हैं और सांकेतिक रूप से सीने पर हाथ मारकर मातम किया जाता है।

सुन्नी मुसलमान क्या करते हैं?
सुन्नी मुसलमान भी मुहर्रम को यादगार मानते हैं, लेकिन वे आम तौर पर आशूरा के दिन रोजा रखते हैं और इमाम हुसैन की कुर्बानी को श्रद्धांजलि देते हैं। वे खुद को चोट नहीं पहुंचाते।

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