शिव, लय भी और प्रलय भी , महाकाल के त्रिशूल में छिपा है रहस्य

शिव, लय भी और प्रलय भी कला भी और काल भी डमरू भी और त्रिशूल भी गंगाजल भी और विष भी. कंठ में विषपान करने वाले,दक्षराज का मर्दन करने वाले, सती पति कहलाने महादेव की महिमा जितनी बताई जाए उतनी कम होगी . महादेव सृष्टि संहार देव कहलाने वाले है .भीम,रौद्र रूप धारण करने वाले लय,प्रलय उनके अधीन हो जाती है , वो  नटराज,अर्धनारीश्वर भी  कहलाते है. त्रिशूल, डमरू, नाग, नंदी, त्रिपुंड सब महादेव के प्रतीक है . लेकिन महादेव के त्रिशूल को सबसे ज्यादा प्रभावी माना जाता है . त्रिशूल के लिए मान्यता है कि जब भगवान शिव प्रकट हुए तो रज, तम, सत इन तीन गुणों के साथ प्रकट हुए थे. यही तीनों गुण भगवान शिव के तीन शूल यानि त्रिशूल बने. इन तीनों के बिना सृष्टि का संचालन कठिन था. इसलिए माना जाता है भगवान शिव ने इन तीनों को अपने हाथ में धारण किया.

सद्गुरु जग्गी वासुदेव शिव के त्रिशूल के बारे में विस्तार से बताते हैं और उनका विवरण काफी प्रभावी है . सद्गुरु जग्गी वासुदेव जी के अनुसार -

शिव का त्रिशूल जीवन के तीन मूल पहलुओं को दर्शाता है. योग परंपरा में उसे रुद्र, हर और सदाशिव कहा जाता है. ये जीवन के तीन मूल आयाम हैं, जिन्हें कई रूपों में दर्शाया गया है. उन्हें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना भी कहा जा सकता है. ये तीनों प्राणमय कोष यानि मानव तंत्र के ऊर्जा शरीर में मौजूद तीन मूलभूत नाड़ियां हैं – बाईं, दाहिनी और मध्य. नाड़ियां शरीर में उस मार्ग या माध्यम की तरह होती हैं जिनसे प्राण का संचार होता है. तीन मूलभूत नाड़ियों से 72,000 नाड़ियां निकलती हैं. इन नाड़ियों का कोई भौतिक रूप नहीं होता. यानी अगर आप शरीर को काट कर इन्हें देखने की कोशिश करें तो आप उन्हें नहीं खोज सकते. लेकिन जैसे-जैसे आप अधिक सजग होते हैं, आप देख सकते हैं कि ऊर्जा की गति अनियमित नहीं है, वह तय रास्तों से गुजर रही है. प्राण या ऊर्जा 72,000 विभिन्न रास्तों से होकर गुजरती है. इड़ा और पिंगला जीवन के बुनियादी द्वैत के प्रतीक हैं. इस द्वैत को हम परंपरागत रूप से शिव और शक्ति का नाम देते हैं. या आप इसे बस पुरुषोचित और स्त्रियोचित कह सकते हैं, या यह आपके दो पहलू - तर्क-बुद्धि और सहज-ज्ञान हो सकते हैं.

जीवन की रचना भी इसी के आधार पर होती है. इन दोनों गुणों के बिना, जीवन ऐसा नहीं होता, जैसा अभी है. सृजन से पहले की अवस्था में सब कुछ मौलिक रूप में होता है. उस अवस्था में द्वैत नहीं होता. लेकिन जैसे ही सृजन होता है, उसमें द्वैतता आ जाती है. पुरुषोचित और स्त्रियोचित का मतलब लिंग भेद से - या फिर शारीरिक रूप से पुरुष या स्त्री होने से - नहीं है, बल्कि प्रकृति में मौजूद कुछ खास गुणों से है. प्रकृति के कुछ गुणों को पुरुषोचित माना गया है और कुछ अन्य गुणों को स्त्रियोचित. आप भले ही पुरुष हों, लेकिन यदि आपकी इड़ा नाड़ी अधिक सक्रिय है, तो आपके अंदर स्त्रियोचित गुण हावी हो सकते हैं. आप भले ही स्त्री हों, मगर यदि आपकी पिंगला अधिक सक्रिय है तो आपमें पुरुषोचित गुण हावी हो सकते हैं. अगर आप इड़ा और पिंगला के बीच संतुलन बना पाते हैं तो दुनिया में आप प्रभावशाली हो सकते हैं. इससे आप जीवन के सभी पहलुओं को अच्छी तरह संभाल सकते हैं. अधिकतर लोग इड़ा और पिंगला में जीते और मरते हैं, मध्य स्थान सुषुम्ना निष्क्रिय बना रहता है. लेकिन सुषुम्ना मानव शरीर-विज्ञान का सबसे अहम पहलू है. जब ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है, जीवन असल में तभी शुरू होता है. आप एक नए किस्म का संतुलन पा लेते हैं, एक अंदरूनी संतुलन, जिसमें बाहर चाहे जो भी हो, आपके भीतर एक खास जगह बन जाती है, जो किसी भी तरह की हलचल में कभी अशांत नहीं होती, जिस पर बाहरी हालात का असर नहीं पड़ता. आप चेतनता की चोटी पर सिर्फ तभी पहुंच सकते हैं, जब आप अपने अंदर यह स्थिर अवस्था बना लें.

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