अलविदा .....डी एम साहब !

गोरखपुर : कल रात शासन ने आई ए एस के तबादलो की सूची जारी की जिसमे गोरखपुर के डी एम साहब का नाम भी सम्मिलित था । डी एम साहब के तबादले की खबर से कुछ स्वयंभू  लोग अपने अपने अपने अलाप के अनुसार विधवा विलाप करने लगे । ये बात और है कि इन विधवा विलाप करने वालों को भाषण औऱ भासड, तारन और तारण तथा मूकदर्शक और मुखदर्शक के बीच का फर्क नही मालूम । ऐसी अवस्था मे ऐसे लोगों को कर्तव्यनिष्ठ और तेजतर्रार  का मतलब कौन समझा पायेगा ? किसी ने साहब को तेजतर्रार बताया तो किसी न कर्तव्य निष्ठ । साहब क्या थे मैं इस पर नही जाना चाहता । यदि साहब बुद्धिमान थे तेजतर्रार थे और कर्तव्यनिष्ठ थे तो ये उनका मौलिक गुण था शायद इसी गुण की बदौलत साहब डी एम थे.. हम और आप नही । 

साहब के छोटे से कार्यकाल में मुझे आज भी सिर्फ दो वाकये याद आते है जिनके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि साहब की कर्तव्यनिष्ठता मानवता और तजतर्रारी सिर्फ नाम की थी । मुझे याद है कि कानपुर के व्यापारी मनीष गुप्ता हत्याकांड में  एक बेवा के करुण क्रंदन और विलाप से साहब का दिल नही पसीजा और वे अपनी कर्तब्यनिष्ठता को भूल अपनी कुर्सी बचाने की पैरोकारी में ही जुटे हुए मूकदर्शक बने रहे तो इसे मैं कौन सी कर्तव्यनिष्ठता समझूँ ?

साहब भी औरों जैसे ही थे शायद इसलिए किसी के मात्र फोन भर कर देने से बगैर सोचे समझे एक 6 बेड वाले छोटे से रजिस्टर्ड अस्पताल की बैंड बजाने दौर पड़े । साहब के नुमाइंदे इस अदने के खिलाफ कार्यवाही मात्र इसलिए कर गुजरे क्योंकि उसने एक गलत बयानबाजी और साजिश के आगे घुटने टेकने से इंकार कर दिया था । अब इसे मैं कौन सी कर्तब्यपरायणता समझूँ ? क्या उस अस्पताल में मौत हुई थी, या कोई अपंग हुआ था या कुछ औऱ ऐसा जो अति अतिरंजक रहा हो । नही वहाँ ऐसा कुछ नही हुआ था । 

जो ताल ठोक कर अवैध काम कर रहे हैं और जिन्हें आपका रत्ती भर भी डर नही वो आज भी उसी जगह उसी अंदाज में सिस्टम को मुँह चिढ़ा रहे हैं और आप कुछ नही कर पाए । तो क्या आपकी ताकत और हनक सिर्फ उनके लिए थी जो आपकी गाड़ियों के सायरन के आवाज से ही काँप जाते हैं ? उपरोक्त दोनों ही मामलों में पीड़ित बेवा महिला और अदना सा अस्पताल संचालक आपसे न्याय की आस में बैठे-बैठे मनोविकृत हो गए लेकिन आप को कोई फ़र्क नही पड़ा । आज दोनों ही मामले न्यायालय की चौखट पर हैं और यह तय है कि दोनों ही मामलों में जबरदस्त छीछालेदर होगी परंतु मूल प्रश्न यह है कि अन्याय से व्यथित जो आँसू गिरते रहे वो कहाँ जाएंगे ? 

हमने तो दुआओं और बद्दुआओं का असर बड़े करीब से महसूस किया है और देखा है कि ये दोनों कभी व्यर्थ नही जाते । आपको भी जाने अनजाने में हुई इन गलतियों का मोल निश्चित तौर पर चुकाना पड़ेगा क्योंकि यही प्रकृति का अकाट्य नियम भी है और परमसत्य भी ...जिसे कोई काट नही सकता । 

दुआओं और बद्दुआओं को किसी देश, राज्य या जिले की सीमाएं नही बाँध सकती ये जीवन भर पीछा करती हैं इसलिए तबादलों से गुनाह नही मिटा करते यह समझना होगा । साहब को वर्तमान में कुम्भ मेले का भी अतिरिक्त प्रभार मिला है इसलिए शुभचिंतक होने के नाते यही कहूँगा की समय निकाल कर स्नान जरूर कर ले शायद दिल का बोझ कुछ कम हो जाए ... अलविदा डी एम साहब !

रिपोर्ट : सत्येंद्र कुमार

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