"बढ़ाओ न आपस में मिल्लत ज़ियादा" अल्ताफ़ हुसैन हाली

अल्ताफ़ हुसैन हाली उर्दू अदब के बड़े नामों में से एक हैं और उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब की जीवनी 'यादगार-ए-ग़ालिब भी लिखी हैं। आज सी न्यूज़ भारत के साहित्य में पेश है अल्ताफ़ हुसैन हाली के कुछ अशआर...।
बढ़ाओ न आपस में मिल्लत ज़ियादा
मुबादा कि हो जाए नफ़रत ज़ियादा।
 
तक़ल्लुफ़ अलामत है बेग़ानगी की,
न डालो तक़ल्लुफ़ की आदत ज़ियादा।
 
करो दोस्तो पहले आप अपनी इज़्ज़त,
जो चाहो करें लोग इज़्ज़त ज़ियादा।
 
निकालो न रख़ने नसब में किसी के,
नहीं कोई इससे रज़ालत ज़ियादा।
 
करो इल्म से इक़्तसाबे-शराफ़त,
नसाबत से है ये शराफ़त ज़ियादा।
 
फ़राग़त से दुनिया में दम भर न बैठो,
अगर चाहते हो फ़राग़त ज़ियादा।
 
जहाँ राम होता है मीठी ज़बाँ से,
नहीं लगती कुछ इसमें मेहनत ज़ियादा।
 
मुसीबत का इक इक से अहवाल कहना,
मुसीबत से है ये मुसीबत ज़ियादा।
 
फिर औरों की तकते फिरोगे सख़ावत,
बढ़ाओ न हद से सख़ावत ज़ियादा।
 
कहीं दोस्त तुमसे न हो जाएँ बदज़न,
जताओ न अपनी महब्बत ज़ियादा।
 
जो चाको फ़क़ीरी में इज़्ज़त से रहना,
न रक्खो अमीरों से मिल्लत ज़ियादा।
 
है उल्फ़त भी वहशत भी दुनिया से लाज़िम,
पै उल्फ़त ज़ियादा न वहशत ज़ियादा।
 
फ़रिश्ते से बेहतर है इन्सान बनना,
मगर इसमें पढ़ती है मेहनत ज़ियादा।।
हक वफ़ा का जो हम जताने लगे,
आप कुछ कह के मुस्कुराने लगे।
 
हम को जीना पड़ेगा फुरक़त में,
वो अगर हिम्मत आज़माने लगे।
 
डर है मेरी जुबान न खुल जाये,
अब वो बातें बहुत बनाने लगे।
 
जान बचती नज़र नहीं आती,
गैर उल्फत बहुत जताने लगे।
 
तुम को करना पड़ेगा उज्र-ए-जफा,
हम अगर दर्द-ए-दिल सुनाने लगे।
 
बहुत मुश्किल है शेवा-ए-तस्लीम,
हम भी आखिर को जी चुराने लगे।
 
वक़्त-ए-रुखसत था सख्त “हाली” पर,
हम भी बैठे थे जब वो जाने लगे।।

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