बुन्देलखण्ड की वो वीरांगना रानी, जिसने युद्ध में शत्रुओं को याद दिलाई उनकी नानी||

महोबा में 16वीं सदी में चंदेल राजा कीर्ति सिंह हुए जिन्होंने चन्देल राजाओं से छीने गए कलिंजर और महोबा को फिर से अपने अधिकार में किया। 1524 ईस्वी में राजा कीर्ति सिंह की पुत्री का जन्म हुआ जिनका नाम था दुर्गावती। नाम के अनुरूप ही वह तेज, साहस, शौर्य और सुंदरता के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गई। रानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्ति सिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं। राजा संग्राम शाह के पुत्र दलपत शाह से उनका विवाह हुआ था। दुर्भाग्यवश विवाह के 4 वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती का पुत्र नारायण 3 वर्ष का ही था अतः रानी ने स्वयं ही गढ़मंडला का शासन संभाल लिया।

वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केंद्र था। सूबेदार बाजबहादुर ने भी रानी दुर्गावती पर बुरी नजर डाली थी लेकिन उसको मुंह की खानी पड़ी। दूसरी बार के युद्ध में दुर्गावती ने उसकी पूरी सेना का सफाया कर दिया और फिर वह कभी पलटकर नहीं आया। दुर्गावती ने तीनों मुस्लिम राज्यों को बार-बार युद्ध में परास्त किया। पराजित मुस्लिम राज्य इतने भयभीत हुए कि उन्होंने गोंडवाने की ओर झांकना भी बंद कर दिया। इन तीनों राज्यों की विजय में दुर्गावती को अपार संपत्ति हाथ लगी। दुर्गावती बड़ी वीर थी। उसे कभी पता चल जाता था कि अमुक स्थान पर शेर दिखाई दिया है, तो वह शस्त्र उठा तुरंत शेर का शिकार करने चल देती और जब तक उसे मार नहीं लेती, पानी भी नहीं पीती थीं। दूसरी बार के युद्ध में दुर्गावती ने उसकी पूरी सेना का सफाया कर दिया और फिर वह कभी पलटकर नहीं आया। महारानी ने 16 वर्ष तक राज संभाला। इस दौरान उन्होंने अनेक मंदिर, मठ, कुएं, बावड़ी तथा धर्मशालाएं बनवाईं। रानी दुर्गावती का पराक्रम कि उसने अकबर के जुल्म के आगे झुकने से इंकार कर स्वतंत्रता और अस्मिता के लिए युद्ध भूमि को चुना और अनेक बार शत्रुओं को पराजित करते हुए 1564 में बलिदान दे दिया। रानी दुर्गावती का नाम भारत की महानतम वीरांगनाओं की सबसे अग्रिम पंक्ति में आता है।

समय अपनी तेज़ गति के साथ आगे बढ़ता है और फिर वो समय भी आता है जब व्यापारी के रूप में आये धूर्त अंग्रेज़ सोने की चिड़िया को देख ललचा गए और इसे चुराने की शातिर नीति बनाने लगे। उन्होंने धीरे-धीरे देश को अपने अधीन कर लिया। लेकिन अपनी मातृभूमि को परतंत्र की बेड़ियों से आज़ाद करने के लिए भारत माता के वीर सपूतों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। इसी क्रम में अहिंसा को अपना हथियार बनाने वाले महात्मा गांधी ने भी अपना जीवन भारत की स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिया और उनके पीछे चल पड़े हज़ारों लाखों लोग। भारतवर्ष की आज़ादी के लिए महोबा ने भी अपना भरपूर योगदान दिया।

साल 1928 में भगवानदास बालेन्दु कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गए, तो महात्मा गांधी को महोबा के कुलपहाड़ आने का आमंत्रण देकर लौटे थे। नवम्बर 1929 में गांधी जी कुलपहाड़ आए और जनतंत्र इंटर कालेज मैदान में विशाल जनसभा की। जिस जगह जनसभा हुई वहां पर आज भी गांधी चबूतरा बना हुआ है। गांधी जी रात्रि में कुलपहाड़ में ही खादी भंडार में रुके थे। गांववासियों की ओर से गांधी जी को 1500 रुपए की थैली भेंट की गई और वापसी में रेलवे स्टेशन जाते समय रास्ते में क्रिश्चियन मिशनरी ने भी उन्हें 101 रुपए की थैली भेंट की थी।

1929 में भगवानदास बालेन्दु कांग्रेस के उस ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन में उपस्थित थे जिसमें 31 दिसम्बर को पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित किया गया था। 1930 में असहयोग आंदोलन चलाने के लिए गांधी जी ने हर प्रांत में एक अधिनायक नियुक्त किया था। गणेश शंकर विद्यार्थी जी को संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) का प्रथम अधिनायक नियुक्त किया गया था। विद्यार्थी जी ने हमीरपुर जिले का प्रथम अधिनायक बालेन्दु अरजरिया को नियुक्त किया था।

कुलपहाड़ में जबरदस्त आंदोलन चला। 7 मई 1930 को गांधी जी के गिरफ्तार होने पर कुलपहाड़ में पूर्ण हड़ताल रही। पुलिस और सरकारी अफसरों का बहिष्कार किया गया। धोबियों ने उनके कपड़े धोना बंद कर दिए नाईयों ने बाल काटना व हजामत बनाना बंद कर दिया। दुकानदारों ने उन्हें सामान बेचना बंद कर दिया था। यह बहिष्कार एक माह चला था। जब पुलिस अधिकारियों ने स्थानीय लोगों से अनुरोध किया कि आपकी लड़ाई अंग्रेजों से है हम तो हिन्दुस्तानी हैं, तब बहिष्कार खत्म किया गया था।

1930 में बालेन्दु जी को गिरफ्तार कर बरेली जेल भेजा गया जहां पंडित गोविन्द वल्लभ पंत जी भी बंद थे। बालगोविंद अग्रवाल तथा अन्य सेनानी भी गिरफ्तार किए गए। कुलपहाड़ के ऐतिहासिक पुलिस बहिष्कार पर बालेन्दु अरजरिया ने लिखा था: बहिष्कार कौ भओ है, यहीं शान्ति संग्राम; ब्रिटिश पुलिस में दर्ज है, कुलपहाड़ कौ नाम!!
15 अगस्त, 1947 जब भारत आज़ाद हुआ और 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू होने के बाद उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री श्री गोविन्द वल्लभ पन्त जब महोबा के चरखारी गए, तो चरखारी का वैभव एवं सौन्दर्य देखकर उनके मुँह से अचानक निकल पड़ा कि अरे यह तो बुन्देलखण्ड का कश्मीर है।

चरखारी उन्हें इतना प्रिय था कि आजादी के बाद रियासतों के विलीनीकरण के समय जब चरखारी की जनता ने मध्य प्रदेश में विलय के पक्ष में अपना निर्णय दिया तो पं. गोविंद वल्लभ पंत सिर के बल खड़े हो गए। तत्काल चरखारी के नेताओं को बुलावा भेजा, महाराज चरखारी से गुफ्तगू की और बुन्देलखण्ड का कश्मीर मध्य प्रदेश में जाने से बच गया।

पहले हमीरपुर जिले के अंतर्गत महोबा तहसील थी, जिसे 11 फरवरी 1995 को जनपद हमीरपुर से अलग कर के महोबा को पूर्ण जिला बनाया गया। इसी महोबा जिले से सटा हुआ है एक ऐसा शौर्य नगर जिसकी गाथा हर हिन्दुस्तानी को जुबानी याद है। ये नगर है एक ऐसी वीरांगना का जिसने अंग्रेजों हड़प नीति का पुरज़ोर विरोध किया और जब अंग्रेजो ने युद्ध की नीति बनाई तो उन वीरांगना ने अपनी वीरता से अंग्रेजों को नाको चने चबवा दिए। जय घोष के अगले अंक में हम आपको सुनायेंगे एक ऐसे नगर और एक ऐसी वीरांगना की कहानी जिसने युद्ध में हँसते-हँसते अपने प्राणों की आहुति दे दी मगर ग़ुलामी मंज़ूर नहीं की।

Leave a Reply



comments

Loading.....
  • No Previous Comments found.