चिड़ियाघर देखकर लौट जाना, पर वहां रहने के लिए जाना?? "ठाकुरप्रसाद सिंह"

वाराणसी में जन्मे ठाकुरप्रसाद सिंह का नाम नवगीत विधा के मूर्धन्य कवियों में प्रमुखता से लिया जाता है। अपनी कई कृतियों के लेखन के साथ ही इन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। कई नाटक तथा उपन्यास भी ठाकुरप्रसाद सिंह ने लिखे। आज सी न्यूज़ भारत के साहित्य में हम आपके लिए लाये हैं ठाकुरप्रसाद सिंह की लिखी हुई दो कविताएँ...।

यह बादल की पहली बूँद कि यह वर्षा का पहला चुम्बन
स्मृतियों के शीतल झोकों में झुककर काँप उठा मेरा मन।

बरगद की गभीर बाँहों से बादल आ आँगन पर छाए
झाँक रहा जिनसे मटमैला थका चाँद पत्तियाँ हटाए
नीची-ऊँची खपरैलों के पार शान्त वन की गलियों में
रह-रह कर लाचार पपीहा थकन घोल देता है उन्मन
यह वर्षा का पहला चुम्बन।

पिछवारे की बँसवारी में फँसा हवा का हलका अंचल
खिंच-खिंच पडते बाँस कि रह-रह बज-बज उठते पत्ते चंचल
चरनी पर बाँधे बैलों की तड़पन बन घण्टियाँ बज रहीं
यह उमस से भरी रात यह हाँफ रहा छोटा-सा आँगन
यह वर्षा का पहला चुम्बन।

इसी समय चीरता तमस की लहरें छाया धुँधला कुहरा,
यह वर्षा का प्रथम स्वप्न धँस गया थकन में मन की, गहरा
गहन घनों की भरी भीड मन में खुल गए मृदंगों के स्वर
एक रूपहली बूँद छा गई बन मन पर सतरंगा स्पन्दन
यह वर्षा का पहला चुम्बन।

चिड़ियाघर देखकर लौट जाना
आनंददायक हो सकता है।
पर वहां रहने के लिए जाना –
क्या बताऊं, कैसा लगता है?
 
पहले मैं अकसर वहां जाता था
वहां मैं शेरों को
अद्भुत गाम्भीर्य से मंडित देखता था;
और बंदरों को बुरी तरह खिलवाड़ी।
गिरनार का सिंह, कामुक
अपनी प्रिया की गोद में
समझौते की शर्तें तय करता रहता
चीता बराबर पैंतरे बदलता, चुस्ती से।
भालू मुंह बाये, जीभ हिलाता
और उसकी बगल में चिम्पेंजी
अपने वंशजों से दो-दो हाथ
करने के लिए लालायित।
हाथी झूमता
मूर्तिमान सुख जैसा!
भालू निश्चिन्त
गैंडे अप्रभावित
फुदकते हिरन,
सिर पर उगी समस्याओं के जंगल उठाये
चिन्तातुर बारहसिंघे
और बाहर-भीतर को अपनी लंबी गरदन से जोड़ते
शुतुरमुर्ग!
लंबी टाँगों वाले हवासिल
तालाब को चोंचों के स्केल से
बार-बार नापते :  अंदाज लेते।
पैलिकन हर कदम पर
भारी चोंचों की खड़ताल बजाता
‘हरे कृष्ण-हरे रामा’ कल्ट के
नवदीक्षित विदेशी-भक्तों जैसा
और दूसरी मंजिल की खिड़की से
अपनी पूँछ का अंगवस्त्रम कंधे पर डाले
झाँकता पंडा।
जालियों से ढँके
तालाब के छिछले जल में
खड़े पंछी
अपनी आवाजों के लहरियों से भरे
ताल में पंख फुलाकर नहाते,
आलाप लेते।
साँप अपनी गुंजलकों में
अलसाये सोये विष्णु जैसे,
और मछलियाँ प्रश्नों की तरह
बराबर विचलित,
बेचैन।
पर यह सब पहले की यादें हैं;
जब मैं वहां जाता था
और सुखी होकर लौटता था।
अब मैं चिड़ियाघर का स्थायी निवासी हूँ;
और मेरी दुनिया
उसी के बीच सिमट आयी है।

अब लगता है
जो पहले देखा था –
वह सुख नहीं
सुख का मृगजल था।
सुबह घूमने के लिए आये
गाँववालों की रोटियों;
चने, सत्तू और फलों के लिए
पूरे चिड़ियाघर की निश्चिन्तता
टूट जाती है;
और तो और
सिंह तक जंगले के पास आकर
अपनी खीझ भरी शालीनता
प्रदर्शन के लिए
बाजार में रख देता है।
पूरे चिड़ियाघर को इस तरह
लोहे के जंगलों से अपने नथने रगड़ते देखकर
जी उदास हो जाता है।
एक मूँगफली के लिए
एक आदमी का सिर पकड़ने इतना
मुँह फाड़ता है भालू
किले सा सुरक्षित गैंडा
पुल की दीवार पर
थूथन घिसता है –
एक केले के लिए।
 
यदि यही सब देखना था
तो बाहर ही क्या बुरा था?
थूथन रगड़ते या खीझभरी
शालीनता सँभालते, बिकते
लोग वहीं क्या कम थे?
फिर बाहर लोहे के जंगले तो नहीं थे;
या थे भी तो
कम से कम दीखते तो नहीं थे।
धीरे-धीरे मेरे ऊपर
अजायबघर सवार होता जा रहा है।
मेरी चाल में लँगड़ाते
चीते की चाल समा गयी है
और चेहरे पर
झलकने लग गयी है
शेर की खीझभरी शालीनता।
डर है कि कहीं एक दिन
मैं किसी के पैर पर
थूथन न रगड़ने लगूँ;
केवल एक केले के लिए।

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