"दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ"

मशहूर और जाने-माने शायर अकबर इलाहाबादी को आज भी लोग उनकी शायरी और उनके अंदाज़-ए-बयाँ से याद करते हैं। जब इलाहबाद का नाम बदल कर पुनः प्रयागराज रखा गया तो लोग कहने लगे कि अब अकबर इलाहाबादी नहीं, बल्कि प्रयागाराजी कहे जायेंगे। मगर अकबर "इलाहाबादी" को सबके ज़हन में इसी नाम से पहचाना जाता रहा है, वही रहेगा भी और उनकी शायरी की वही ख़ुशबू अपने चाहने वालों साँसों में बसी रहेगी। आज सी न्यूज़ भारत के साहित्य में आप सभी साहित्य प्रेमियों के लिए पेश है अकबर "इलाहाबादी" की शायरी की कुछ बूँदों की ख़ुशबू...।

बहसें फिजूल थीं यह खुला हाल देर में,
अफ़सोस उम्र कट गई लफ़्ज़ों के फेर में।

है मुल्क इधर तो कहत जहद, उस तरफ यह वाज़,
कुश्ते वह खा के पेट भरे पांच सेर में।

हैं गश में शेख देख के हुस्ने-मिस-फिरंग,
बच भी गये तो होश उन्हें आएगा देर में।

छूटा अगर मैं गर्दिशे तस्बीह से तो क्या,
अब पड़ गया हूँ आपकी बातों के फेर में।।

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ,
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ।

ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी,
हर चंद कि हूँ होश में, होशियार नहीं हूँ।

इस ख़ाना-ए-हस्त से गुज़र जाऊँगा बेलौस,
साया हूँ फ़क़्त, नक़्श बेदीवार नहीं हूँ।

अफ़सुर्दा हूँ इबारत से, दवा की नहीं हाजित,
गम़ का मुझे ये ज़ौफ़ है, बीमार नहीं हूँ।

वो गुल हूँ ख़िज़ां ने जिसे बरबाद किया है,
उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूँ।

यारब मुझे महफ़ूज़ रख उस बुत के सितम से,
मैं उस की इनायत का तलबगार नहीं हूँ।

अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़ की कुछ हद नहीं “अकबर”,
क़ाफ़िर के मुक़ाबिल में भी दींदार नहीं हूँ।।

मुंशी कि क्लर्क या ज़मींदार,
लाज़िम है कलेक्टरी का दीदार।

हंगामा ये वोट का फ़क़त है,
मतलूब हरेक से दस्तख़त है।

हर सिम्त मची हुई है हलचल,
हर दर पे शोर है कि चल-चल।

टमटम हों कि गाड़ियां कि मोटर,
जिस पर देको, लदे हैं वोटर।

शाही वो है या पयंबरी है,
आखिर क्या शै ये मेंबरी है।

नेटिव है नमूद ही का मुहताज,
कौंसिल तो उनकी हि जिनका है राज।

कहते जाते हैं, या इलाही,
सोशल हालत की है तबाही।

हम लोग जो इसमें फंस रहे हैं,
अगियार भी दिल में हंस रहे हैं।

दरअसल न दीन है न दुनिया,
पिंजरे में फुदक रही है मुनिया।

स्कीम का झूलना वो झूलें,
लेकिन ये क्यों अपनी राह भूलें।

क़ौम के दिल में खोट है पैदा,
अच्छे अच्छे हैं वोट के शैदा।

क्यो नहीं पड़ता अक्ल का साया,
इसको समझें फ़र्जे-किफ़ाया।

भाई-भाई में हाथापाई,
सेल्फ़ गवर्नमेंट आगे आई।

पाँव का होश अब फ़िक्र न सर की,
वोट की धुन में बन गए फिरकी।।

Leave a Reply



comments

Loading.....
  • No Previous Comments found.