सब जाय अभी पर मान रहे- याद आते हैं ददा मैथिलीशरण गुप्त

लेखर- अर्पित सिंह सिसोदिया

राष्ट्रकवी ददा मैथिलीशरण गुप्त की कवितायेँ आपको किसी भी परिस्तिथि में उर्जावान बना देती हैं। ददा की लेखनी केवल हिंदी भाषा के रचनायों हेतु नहीं है बल्कि हर उस पाथेय की हिम्मत को बांधती है जो अपनी पथ में आई मुश्किलों से हारने लगता हैं। जब हम अपने लक्ष्य को साधने निकले हैं तो हमें रास्ते में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता हैं। सफ़लता की राह पर बहुत सी भयंकर मुश्किलें आती हैं जो हमे तोड़ कर रख देती है। हर तरफ़ से निराशा ही हाथ लगती हैं मनुष्य इतना टूट जाता हैं कि उसे अपना कोई सहारा नहीं मिलता है। वो अपने लक्ष्य पथ से लौटने का मन बना लेता हैं जब उसे लगता है कि इस कठिनाई के अनंत शून्य सागर में वो कही विलुप्त हो जायेगा और उसके सपनों का घर जिसकी रूप रेखा उसने कई रातों जाग कर बनाई थी वह ढ़ह जायेगा। ऐसी विपरीत समय में ददा की कवितायेँ उसका सहारा बनती हैं। अगाध निराशा के समुन्द्र में टापू जैसा प्रतीत होती हैं और उसमे नवचेतना का संचार करती हैं जिससे मनुष्य अपनी शक्ति को पुनःउत्पन करके अपने स्वपन गृह कि नीव रखता हैं। मैथिलीशरण गुप्त की एक ऐसी ही कविता हैं जो आपके निराशा भरे जीवन में आशा की ज्योति जला देता हैं... पढ़िए पूरी कविता 

नर हो, न निराश करो मन को

कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को

संभलो कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तज़ो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को

प्रभु ने तुमको दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को 

किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जान हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के 
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को 

करके विधि वाद न खेद करो
निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्‌यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो

- मैथिलीशरण गुप्त

Leave a Reply



comments

Loading.....
  • No Previous Comments found.