जूते फटे पहनके आकाश पर चढ़े थे- मनोज मुंतशिर

Written By- Arpit Singh Sisodiya 

मनोज मुंतशिर का नाम आज के समय में सूर्य की तरह चमक रहा है. वे गीतकार के साथ साथ टेलीविजन, स्क्रिप्ट और पटकथा लेखक भी है. उन्होंने कई हिंदी फिल्मों के लिए गीत लिखे है. उनकी लक्षणीय प्रतिभा और रचनात्मकता के कारण आज उनका नाम भारत के श्रेष्ठ गीतकारों में आता है. उनका जन्म 27 जनवरी 1976 के दिन अमेठी (उत्तर प्रदेश) के गौरीगंज में हुआ था. उन्हें बचपन से ही पढ़ने-लिखने का शौक था और उन्होंने खूब तालीम हासिल भी की. 
मुंतशिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1999 में अपनी पढ़ाई पूरी की थी. कवि मनोज मुंतशिर आज किसी भी पहचान के मोहताज नहीं है. उन्होंने अपने बेहतरीन लेखन से इंडस्ट्री और अपने फैन के बिच खास जगह बनाई है. ये राष्ट्रवादी कवी के रूप में जाने जाते है.मनोज मुंतशिर गायक लेखक, कवि, डायलॉग राइटर और स्क्रीन राइटर हैं. उनका असली नाम मनोज शुक्ला है. इन्होने तेरी मिट्टी में मिल जावां, तेरी गलिया, ओ देश मेरे, जैसे कई प्रसिद्ध गीत लिख चुके है. आइये इनके कुछ कविताओं से आपको रूबरू कराते है.

1-सरहद पे गोली खाके जब टूट जाए मेरी सांस
मुझे भेज देना यारों मेरी बूढ़ी मां के पास

बड़ा शौक था उसे मैं घोड़ी चढूं
धमाधम ढोल बजे
तो ऐसा ही करना 
मुझे घोड़ी पे लेके जाना
ढोलकें बजाना 
पूरे गांव में घुमाना
और मां से कहना 
बेटा दूल्हा बनकर आया है
बहू नहीं ला पाया तो क्या
बारात तो लाया है

मेरे बाबूजी, पुराने फ़ौजी, बड़े मनमौजी         
कहते थे- बच्चे, तिरंगा लहरा के आना
या तिरंगे में लिपट के आना
कह देना उनसे, उनकी बात रख ली
दुश्मन को पीठ नहीं दिखाई
आख़िरी गोली भी सीने पे खाई

मेरा छोटा भाई, उससे कहना 
क्या मेरा वादा निभाएगा
मैं सरहदों से बोल कर आया था
कि एक बेटा जाएगा तो दूसरा आएगा

मेरी छोटी बहना, उससे कहना
मुझे याद था उसका तोहफ़ा
लेकिन अजीब इत्तेफ़ाक़ हो गया
भाई राखी से पहले ही राख हो गया

वो कुएं के सामने वाला घर
दो घड़ी के लिए वहां ज़रूर ठहरना
वहीं तो रहती है वो
जिसके साथ जीने मरने का वादा किया था
उससे कहना 
भारत मां का साथ निभाने में उसका साथ छूट गया
एक वादे के लिए दूसरा वादा टूट गया

बस एक आख़िरी गुज़ारिश 
आख़िरी ख़्वाहिश
मेरी मौत का मातम न करना
मैने ख़ुद ये शहादत चाही है
मैं जीता हूं मरने के लिए
मेरा नाम सिपाही है

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2-जूते फटे पहनके आकाश पर चढ़े थे,
सपने हमारे हरदम औकात से बड़े थे,
सिर काटने से पहले दुश्मन ने सिर झुकाया
जब देखा हम निहत्थे मैदान में खड़े थे.

3-जैसा बाजार का तकाजा है,
वैसा लिखना अभी नही सीखा
मुफ्त बंटता हूँ आज भी मैं तो
मैंने बिकना अभी नही सीखा
एक चेहरा है आज भी मेरा
वो भी कमबख्त इतना जिद्दी है
जैसी उम्मीद है जमाने को
वैसा दिखना अभी नही सीखा.

4-कल सूरज सर पे पिघलेगा तो याद करोगे,
कि माँ से घना कोई दरख़्त नहीं था…
इस पछतावे के साथ कैसे जियोगे,
कि वो तुमसे बात करना चाहती थी
और तुम्हारे पास वक़्त नहीं था.

 

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