“ओ, मेरे स्वप्नों के मीत!”- डॉ. उर्मिलेश

डॉ. उर्मिलेश, ये ऐसा नाम है जो कभी हिंदी काव्य मंचों की शोभा हुआ करता थाIडॉ. उर्मिलेश अपनी ओज वाणी में जब भी गीतों को गाया करते थे तो उनकी आवाज़ और उनके शब्द-शब्द से श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो जाते थेI अधिकांशतः लोग जब भी याद करते हैं तो डॉ. उर्मिलेश के वीर रस गीतों को याद करते हैं, लेकिन उनके मन के किसी कोने में प्यार और श्रृंगार के लिए भरपूर जगह रही हैI आज हम आपके सी न्यूज़ भारत पर लेकर आये हैं डॉ. उर्मिलेश के मन के उस कोने की कविताएँ जो उनकी कलम ने कागज़ पर उतार दिया...I

ओ, मेरे स्वप्नों के मीत!
जबसे तुम दूर क्या हुए
नींदों के वन झुलस गये I

शिरा-शिरा लावे जैसा
बहता अभिशप्त ज्वार है,
मेरे तपते शरीर-सा
मौसम को भी बुखार है;

ओ, मेरे चन्दन-परिणीत!
जबसे तुम दूर क्या हुए
मुझको सौ नाग उस गये I

हर करवट नागफनी है
बिस्तर भी अब बबूल है,
पंख कटे भौरे-सा मन
उड़ता रहता फिजूल है;


ओ, मेरे गान्धव अपनीत!
जब से तुम दूर क्या हुए
पतझर हर ओर बस गये I

फीकी हर सुबह हो गई
बासी हर शाम हो गई,
वह उजास वाली यात्रा
धुंधों के नाम हो गई;

ओ, मेरे दर्शन-संगीत!
जबसे तुम दूर क्या हुए
दर्पण भी व्यंग्य कस गए I

मेरी आँखों से अगर दोस्ती कर लेते,
बादलों, ठीक से तुम्हें बरसना आ जाता I

तुम गरज-गरज कर अक्सर शोर मचाते हो,
मैं चुप होकर हर घुटन-त्रास सह लेता हूँ,
तुम हवा, उमस, गर्मी के हो अनुचर लेकिन,
मैं भरी भीड़ में एकाकी रह लेता हूँ,

तुम मेरे अनुगामी बनकर यदि चलते तो,
दुख में भी खुलकर तुम्हें विहँसना आ जाता I

प्यासी धरती जब तुम्हें निमंत्रण देती है,
तुम एक बरस में चार माह को आते हो,
इस छोर कभी, उस छोर स्वार्थ की वर्षा कर
नीले बिस्तर पर एकाकी सो जाते हो;

मेरे चरित्र को थोड़ा भी जी लेते तो,
प्यार की आग में तुम्हें झुलसना आ जाता I

तुम बिजली की टार्च से देखते धरा-रूप,
तुम दरस-परस का असली सुख कब जीते हो,
यों तो सब तुमको पानीदार समझते हैं,
लेकिन आँखों के पानी से तुम रीते हो;

तुम मेरी तरह बूँद भर अश्रु गिरा लेते,
तो यक्ष-दूत-सा तुम्हें हुलसना आ जाता I

हम-तुम हैं दो वृक्ष, बीच में
फैली यह सुनसान सड़क है,
जिस पर कभी हमारे मन का गुज़रा यातायात नहीं है।

हम न बने उपमान किसी के
खोज न पाए उद्यानों को,
संकोचों की भरी सभा में
सहते रहे भ्रांतिमानों को;
यमक बने पर किसी श्लेष का परिचय हमको ज्ञात नहीं है।

कभी बिहारी के दोहों के
हम अनुवाद नहीं हो पाए,
'भरे भौन' में सजल दृगों के
दो संवाद नहीं हो पाए;
आयातित मौन का अधर से हुआ कभी निर्यात नहीं है।

कुछ रूढ़ियाँ, अहं कुछ अपने
आगे आकर खड़े हो गए,
चढ़ी उम्र की धूप हमारे
साये छोटे-बड़े हो गए;
हर अस्पृश्य वियोग मिलन की पूछी हमने जात नहीं है।।

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