पढ़िए निदा फाज़ली की बेहतरीन ग़ज़लें...।

उर्दू जुबान के अज़ीम शायर निदा फ़ाज़ली साहब एक ऐसी शख्सियत रहे जिन्होंने सीधी ज़ुबान और सरल अंदाज़ में लोगों तक अपने कलाम पहुँचाये हैं। उन्होंने न सिर्फ़ ग़ज़लें या नज़्मे ही लिखीं बल्कि उन्होंने हिंदी के दोहे भी लिखे हैं। उन्होंने मंचों से अपने कलामों को सुनाया ही है पर लाखों लोगों ने फ़िल्मों के ज़रिये उनके लिखे गीत ख़ूब सुने भी और पसंद भी किये। आज सी न्यूज़ भारत के सहित्य में हम आपके लिए पेश कर रहे हैं निदा फ़ाज़ली साहब की कुछ चुनिंदा ग़ज़लें...।

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता,
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता।
 
बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले,
ये ऐसी आग है जिसमें धुआँ नहीं मिलता।

तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो,
जहाँ उमीद हो सकी वहाँ नहीं मिलता।

कहाँ चिराग़ जलायें कहाँ गुलाब रखें,
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता।

ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं,
ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता।

चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है,
खुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता।

जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है,
ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबा नहीं मिलता।

तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो,
जहाँ उम्मीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता।।

कोई किसी से खुश हो और वो भी बारहा हो
यह बात तो ग़लत है।
रिश्ता लिबास बन कर मैला नहीं हुआ हो
यह बात तो ग़लत है।

वो चाँद रहगुज़र का, साथी जो था सफ़र का
था मोजिज़ा नज़र का
हर बार की नज़र से रोशन वह मोजिज़ हो
यह बात तो ग़लत है।

है बात उसकी अच्छी, लगती है दिल को सच्ची
फिर भी है थोड़ी कच्ची
जो उसका हादसा है मेरा भी तजुर्बा हो
यह बात तो ग़लत है।

दरिया है बहता पानी, हर मौज है रवानी
रुकती नहीं कहानी
जितना लिखा गया है उतना ही वाकया हो
यह बात तो ग़लत है।

वे युग है कारोबारी, हर शय है इश्तहारी
राजा हो या भिखारी
शोहरत है जिसकी जितनी, उतना ही मर्तवा हो
यह बात तो ग़लत है।।

देखा हुआ सा कुछ है
तो सोचा हुआ सा कुछ।
हर वक़्त मेरे साथ है
उलझा हुआ सा कुछ।

होता है यूँ भी, रास्ता
खुलता नहीं कहीं
जंगल-सा फैल जाता है
खोया हुआ सा कुछ।

साहिल की गीली रेत पर
बच्चों के खेल-सा
हर लम्हा मुझ में बनता
बिखरता हुआ सा कुछ।

फ़ुर्सत ने आज घर को सजाया
कुछ इस तरह
हर शय से मुस्कुराता है
रोता हुआ सा कुछ।

धुँधली-सी एक याद किसी
क़ब्र का दिया
और! मेरे आस-पास
चमकता हुआ सा कुछ।

कभी-कभी यूँ भी हमने अपने जी को बहलाया है,
जिन बातों को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है।।

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