फांस जो छूती रगों को देखने में कुछ नहीं है..."अमरनाथ श्रीवास्तव"

हिंदी की नवगीत विधा में कविताओं को लिखना, उन्हें पढ़ना या सुनने का अपना ही एक अलग आनंद है। हिंदी साहित्य के तमाम कवियों ने अपनी-अपनी लेखनी से नवगीत विधा में अपनी रचनाएँ लिखी हैं, उन्हें में शामिल है एक नाम अमरनाथ श्रीवास्तव का भी जिन्होंने अपनी लेखनी से कागज़ के सीने पर जिन गीतों को उकेरा उन्होंने मन के भावों को बखूबी बयाँ किया है। आज सी न्यूज़ भारत के साहित्य में पेश है उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर में जन्मे अमरनाथ श्रीवास्तव की कुछ कविताएँ आप सभी सुधी पाठकों के लिए...।

फांस जो छूती रगों को देखने में कुछ नहीं है

रह न पाया एक
सांचे से मिला आकार मेरा
स्वर्ण प्रतिमा जहां मेरी
है फंसा अंगार मेरा
आंख कह देती कहानी बांचने में कुछ नहीं है।

हैं हमें झूला झुलाते
सधे पलड़े के तराज़ू
माप से कम तौलते हैं
वाम ठहरे सधे बाज़ू
दांव पर सब कुछ लगा है देखने में कुछ नहीं है।

हर तरफ़ आंखें गड़ी हैं
ढूंढती मुस्कान मेरी
लाल कालीनें बिछाते
खो गयी पहचान मेरी
हर तरफ पहरे लगे हैं आंकने में कुछ नहीं है।

बोलने वाले चमकते
हो गयी मणिदीप भाषा
मैं अलंकृत क्या हुआ
मुझसे अलंकृत है निराशा
लोग जो उपहार लाये भांपने में कुछ नहीं है।

---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

जहां-जहां मैं रहा उपस्थित अंकित है अनुपस्थिति मेरी।

क्रान्ति चली भी साथ हमारे
दोनों हाथ मशाल उठाये
मेरे कन्धों पर वादक ने
परिवर्तन के बिगुल बजाये
सपनों में चलने की आदत
वंशानुगत रही तो पहले
अब लोगों की भौ पर बल है मुझे मिली जब जागृति मेरी।

सिमट गया है सब कुछ ऐसे
टूटे तरु की छाया जैसे
भूल भुलैया लेकर आये
शुभ चिन्तक हैं कैसे-कैसे
मिथक, पुराण, कथा बनती है
आगे एक प्रथा बनती है
क्रास उठाये टंगी घरों में ईसा जैसी आकृति मेरी।

कूट उक्ति या सूक्ति,
सभी ने सिखलाये मुझको अनुशासन
मेरे आगे शकुनि खड़े हैं
ताल ठोंक हंसता दु:शासन
एक पराजय मोह जगाते
कुरुक्षेत्र मुझको झुठलाते
जिसके सधे वाण थे मुझको वही मनाता सद्गति मेरी।

---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

मंज़िल-दर-मंज़िल पुण्य फलीभूत हुआ
कल्प है नया
सोने की जीभ मिली स्वाद तो गया।

छाया के आदी हैं
गमलों के पौधे
जीवन के मंत्र हुए
सुलह और सौदे
अपनी जड़ भूल गई द्वार की जया

हवा और पानी का
अनुकूल इतना
बन्द खिड़कियां
बाहर की सोचें कितना
अपनी सुविधा से है आंख में दया

मंज़िल-दर-मंज़िल
है एक ज़हर धीमा
सीढ़ियां बताती हैं
घुटनों की सीमा
हमसे तो ऊंचे हैं डाल पर बया।

Leave a Reply



comments

Loading.....
  • No Previous Comments found.