महाप्राण निराला के 5 प्रसिद्ध कवितायेँ
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी हिन्दी के छायावादी युग के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे कविताओं के साथ-साथ निबंध, उपन्यास व कहानियाँ भी रचते थे। उनकी कविताएँ बहुत लोकप्रिय रही हैं। लेखन के अलावा वे स्केच भी बनाते थे। निराला का जन्म 21 फरवरी 1896 को बसंत पंचमी के दिन हुआ था। इनकी मृत्यू 15 अक्टूबर 1961 में हुआ था। निराला की कविता पढ़ने के बाद महसूस होता है कि वह वास्तव में हिंदी साहित्य का दर्द थे। सामंतवादी सोच और व्यवस्था का आक्रोश उनकी कविताओं में बरबस झलकता है। पढ़िए निराली 5 सर्वश्रेष्ठ कवितायेँ-
1- वर दे वीणावादिनी वर दे !
वर दे, वीणावादिनि वर दे!
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे!
काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे!
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे!
वर दे, वीणावादिनि वर दे।
2- तुम हमारे हो
नहीं मालूम क्यों यहाँ आया
ठोकरें खाते हुए दिन बीते।
उठा तो पर न सँभलने पाया
गिरा व रह गया आँसू पीते।
ताब बेताब हुई हठ भी हटी
नाम अभिमान का भी छोड़ दिया।
देखा तो थी माया की डोर कटी
सुना वह कहते हैं, हाँ खूब किया।
पर अहो पास छोड़ आते ही
वह सब भूत फिर सवार हुए।
मुझे गफलत में ज़रा पाते ही
फिर वही पहले के से वार हुए।
एक भी हाथ सँभाला न गया
और कमज़ोरों का बस क्या है।
कहा - निर्दय, कहाँ है तेरी दया,
मुझे दुख देने में जस क्या है।
रात को सोते यह सपना देखा
कि वह कहते हैं "तुम हमारे हो
भला अब तो मुझे अपना देखा,
कौन कहता है कि तुम हारे हो।
अब अगर कोई भी सताये तुम्हें
तो मेरी याद वहीं कर लेना
नज़र क्यों काल ही न आये तुम्हें
प्रेम के भाव तुरत भर लेना"।
3- भेद कुल खुल जाए
भेद कुल खुल जाए वह सूरत हमारे दिल में है ।
देश को मिल जाए जो पूँजी तुम्हारी मिल में है ।।
हार होंगे हृदय के खुलकर तभी गाने नये,
हाथ में आ जायेगा, वह राज जो महफिल में है ।
तरस है ये देर से आँखे गड़ी श्रृंगार में,
और दिखलाई पड़ेगी जो गुराई तिल में है ।
पेड़ टूटेंगे, हिलेंगे, जोर से आँधी चली,
हाथ मत डालो, हटाओ पैर, बिच्छू बिल में है ।
ताक पर है नमक मिर्च लोग बिगड़े या बनें,
सीख क्या होगी पराई जब पसाई सिल में है ।
4- गीत गाने दो मुझे
गीत गाने दो मुझे तो,
वेदना को रोकने को।
चोट खाकर राह चलते
होश के भी होश छूटे,
हाथ जो पाथेय थे, ठग-
ठाकुरों ने रात लूटे,
कंठ रूकता जा रहा है,
आ रहा है काल देखो।
भर गया है ज़हर से
संसार जैसे हार खाकर,
देखते हैं लोग लोगों को,
सही परिचय न पाकर,
बुझ गई है लौ पृथा की,
जल उठो फिर सींचने को।
5- वह आता-
दो टूक कलेजे के करता
पछताता पथ पर आता।
पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठीभर दाने को, भूख मिटाने को,
मुँह फटी पुरानी झोली को फैलाता
दो टूक कलेजे के करता
पछताता पथ पर आता।
साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,
बायें से वे मलते हुए पेट चलते हैं,
और दाहिना दयादृष्टि पाने की ओर बढ़ाये।
---- महाप्राण निराला
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