कलम बलि ने जब लिखी हल्दीघाटी की क्रांति- पढ़िए चुनिंदा पंक्तियां

भारत में तो कवियों कि कोई कमी नहीं हैं जो प्रेम और क्रांति दोनों को समान रूप से रखती हैं. हमारी पूर्वजों के लेख कभी हमें प्रेम के सागर में डुबाती हैं तो कभी हमें क्रांति कि राह दिखाती हैं. ऐसे ही हमारें एक बहुत ही चर्चित कवी रहे हैं श्याम नारायण पण्डे इन्होने हिंदी को उचाईयों के उर्ध पर ले गये. इनका जन्म उत्तर प्रदेश के उनका जन्म ग्राम डुमराँव, जिला मऊ, में हुआ था. उन्होंने 4 बहुत ही महत्वपूर्ण महाकाव्य रचे थे जिनमे सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ हल्दीघाटी, आज हम पण्डे जी कि सबसे महत्वपूर्ण महाकाव्य हल्दीघाटी के 16 सर्गों में से चुन कर सबसे बेहतरीन घटनायों को आपके लिए प्रस्तुत करेंगे जिसे पढ़ कर आप पण्डे जी कि कलम कि क्रांति और महाराणा प्रताप के तलवार कि क्रांति को समझ पाएंगे. आप महान महाराणा प्रताप के शौर्य का अंदाजा लगा सकते हैं. आइये समझते हैं कलामबली कि कलम से प्रताप कि पुरुषार्थ कि कहानी....

आज इसी छतरी के भीतर
सुख–दुख गाने आया हूँ।
सेनानी को चिर समाधि से
आज जगाने आया हूँ॥

सुनता हूँ वह जगा हुआ था
जौहर के बलिदानों से।
सुनता हूँ वह जगा हुआ था
बहिनों के अपमानों से॥

सुनता हूँ स्त्री थी अँगड़ाई
अरि के अत्याचारों से।
सुनता हूँ वह गरज उठा था
कड़ियों की झनकारों से॥

सजी हुई है मेरी सेना,
पर सेनापति सोता है।
उसे जगाऊँगा, विलम्ब अब
महासमर में होता है॥

आज उसी के चरितामृत में,
व्यथा कहूँगा दीनों की।
आज यही पर रूदन–गीत में
गाऊँगा बल–हीनों की॥

आज उसी की अमर–वीरता
व्यक्त करूँगा गानों में।
आज उसी के रणकाशल की
कथा कहूँगा कानों में॥

पाठक! तुम भी सुनो कहानी
आँखों में पानी भरकर।
होती है आरम्भ कथा अब
बोलो मंगलकर शंकर॥

2-अकबर, मान सिंह मेवाड़ जितने कि तैयारी 

ऐसा कोई यत्न करो
बन्धन में कस लेने को।
वही एक विषधर बैठा है
मुझको डस लेने को"॥

मानसिंह ने कहा –"आपका
हुकुम सदा सिर पर है।
बिना सफलता के न मान यह
आ सकता फिरकर है।"॥

यह कहकर उठ गया गर्व से
झुककर मान जताया।
सेना ले कोलाहल करता
शोलापुर चढ़ आया॥

युद्ध ठानकर मानसिंह ने
जीत लिया शोलापुर।
भरा विजय के अहँकार से
उस अभिमानी का उर॥

किसे मौत दूँ, किसे जिला दूँ,
किसका राज हिला दूँ?
लगा सोचने किसे मींजकर
रज में आज मिला दूँ॥

किसे हँसा दूँ बिजली–सा मैं,
घन–सा किसै रूला दूँ?
कौन विरोधी है मेरा
फांसी पर जिसे झुला दूँ॥

बनकर भिक्षुक दीन जन्म भर
किसे झेलना दुख है?
रण करने की इच्छा से
जो आ सकता सम्मुख है॥
कहते ही यह ठिठक गया,
फिर धीमे स्वर से बोला।
शोलापुर के विजय–गर्व पर
गिरा अचानक गोला॥

अहो अभी तो वीर–भूमि
मेवाड़–केसरी खूनी।
गरज रहा है निर्भय मुझसे
लेकर ताकत दूनी॥

स्वतन्त्रता का वीर पुजारी
संगर–मतवाला है।
शत–शत असि के सम्मुख
उसका महाकाल भाला है॥

धन्य–धन्य है राजपूत वह
उसका सिर न झुका है।
अब तक कोई अगर रूका तो
केवल वही रूका है॥

3. राणा प्रताप ने कि मान सिंह का तिरस्कार 

सबने कहा "अरे, अपमान!
मानसिंह तेरा अपमान!"
"हाँ, हाँ मेरा ही अपमान,
सरदारो! मेरा अपमान।"॥

कहकर रोने लगा अपार,
विकल हो रहा था दरबार।
रोते ही बोला – "सरकार,
असहनीय मेरा अपकार॥॥

ले सिंहासन का सन्देश,
सिर पर तेरा ले आदेश।
गया निकट मेवाड़–नरेश,
यही व्यथा है, यह ही क्लेश॥॥

आँखों में लेकर अंगार
क्षण–क्षण राणा का फटकार–
'तुझको खुले नरक के द्वार
तुझको जीवन भर धिक्कार॥

तेरे दर्शन से संताप
तुझको छूने से ही पाप।
हिन्दू–जनता का परिताप
तू है अम्बर–कुल पर शाप॥
स्वामी है अकबर सुल्तान
तेरे साथी मुगल पठान।

राणा से तेरा सम्मान
कभी न हो सकता है मान॥
करता भोजन से इनकार
अथवा कुत्ते सम स्वीकार।
इसका आज न तनिक विचार
तुझको लानत सौ सौ बार॥

म्लेच्छ–वंश का तू सरदार,
तू अपने कुल का अंगार।'
इस पर यदि उठती तलवार
राणा लड़ने को तैयार॥

उसका छोटा सा सरदार
मुझे द्वार से दे दुत्कार।
कितना है मेरा अपकार
यही बात खलती हर बार॥
शेष कहा जो उसने आज,
कहने में लगती है लाज।
उसे समझ ले तू सिरताज
और बन्धु यह यवन–समाज।"

4.राणा प्रताप की रण दहाड़

सरदारो, मान–अवज्ञा से
मां का गौरव बढ़ गया आज।
दबते न किसी से राजपूत
अब समझेगा बैरी–समाज।"॥

वह मान महा अभिमानी है
बदला लेगा ले बल अपार।
कटि कस लो अब मेरे वीरो,
मेरी भी उठती है कटार॥

भूलो इन महलों के विलास
गिरि–गुहा बना लो निज–निवास।
अवसर न हाथ से जाने दो
रण–चण्डी करती अट्टहास॥

लोहा लेने को तुला मान
तैयार रहो अब साभिमान।
वीरो, बतला दो उसे अभी
क्षत्रियपन की है बची आन॥

साहस दिखलाकर दीक्षा दो
अरि को लड़ने की शिक्षा दो।
जननी को जीवन–भिक्षा दो
ले लो असि वीर–परिक्षा दो॥

रख लो अपनी मुख–लाली को
मेवाड़–देश–हरियाली को।
दे दो नर–मुण्ड कपाली को
शिर काट–काटकर काली को॥

विश्वास मुझे निज वाणी का
है राजपूत–कुल–प्राणी का।
वह हट सकता है वीर नहीं
यदि दूध पिया क्षत्राणी का॥॥

नश्वर तनको डट जाने दो
अवयव–अवयव छट जाने दो।
परवाह नहीं, कटते हों तो
अपने को भी कट जाने दो॥॥

अब उड़ जाओ तुम पाँखों में
तुम एक रहो अब लाखों में।
वीरो, हलचल सी मचा–मचा
तलवार घुसा दो आँखों में॥॥

यदि सके शत्रु को मार नहीं
तुम क्षत्रिय वीर–कुमार नहीं।
मेवाड़–सिंह मरदानों का
कुछ कर सकती तलवार नहीं॥॥

मेवाड़–देश, मेवाड़–देश,
समझो यह है मेवाड़–देश।
जब तक दुख में मेवाड़–देश।
वीरो, तब तक के लिए क्लेश॥॥

सन्देश यही, उपदेश यही
कहता है अपना देश यही।
वीरो दिखला दो आत्म–त्याग
राणा का है आदेश यही॥

अब से मुझको भी हास शपथ,
रमणी का वह मधुमास शपथ।
रति–केलि शपथ, भुजपाश शपथ,
महलों के भोग–विलास शपथ॥॥

सोने चांदी के पात्र शपथ,
हीरा–मणियों के हार शपथ।
माणिक–मोति से कलित–ललित
अब से तन के श्रृंगार शपथ॥॥

गायक के मधुमय गान शपथ
कवि की कविता की तान शपथ।
रस–रंग शपथ, मधुपान शपथ
अब से मुख पर मुसकान शपथ॥॥

मोती–झालर से सजी हुई
वह सुकुमारी सी सेज शपथ।
यह निरपराध जग थहर रहा
जिससे वह राजस–तेज शपथ॥॥

पद पर जग–वैभव लोट रहा
वह राज–भोग सुख–साज शपथ।
जगमग जगमग मणि–रत्न–जटित
अब से मुझको यह ताज शपथ॥।

जब तक स्वतन्त्र यह देश नहीं
है कट सकता नख केश नहीं।
मरने कटने का क्लेश नहीं
कम हो सकता आवेश नहीं॥॥

परवाह नहीं, परवाह नहीं
मैं हूं फकीर अब शाह नहीं।
मुझको दुनिया की चाह नहीं
सह सकता जन की आह नहीं॥॥

अरि सागर, तो कुम्भज समझो
बैरी तरू, तो दिग्गज समझो।
आँखों में जो पट जाती वह
मुझको तूफानी रज समझो॥॥

यह तो जननी की ममता है
जननी भी सिर पर हाथ न दे।
मुझको इसकी परवाह नहीं
चाहे कोई भी साथ न दे॥॥

विष–बीज न मैं बोने दूंगा
अरि को न कभी सोने दूंगा।
पर दूध कलंकित माता का
मैं कभी नहीं होने दूंगा।॥

               श्याम नारायण पाण्डेय 

 

 

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