शिव कोई पुरोहित, तीर्थंकर या पैगंबर नहीं हैं, जानिए क्या हैं शिव का सूत्र

सावन का महीना शुरू हो चूका हैं लेकिन शिव कौन हैं और उनके क्रांतिकारी सूत्र क्या हैं जिन्हें आसानी से समझा जा सकता हैं. भारत के विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक ओशो ने इन सूत्रों के संदर्भ में कहते हैं, ‘‘शिव कोई पुरोहित नहीं हैं। शिव तीर्थंकर हैं। शिव अवतार हैं। शिव क्रांतद्रष्टा हैं, पैगंबर हैं। वे जो भी कहेंगे, वह आग है। अगर तुम जलने को तैयार हो, तो ही उनके पास आना; अगर तुम मिटने को तैयार हो, तो ही उनके निमंत्रण को स्वीकार करना। क्योंकि तुम मिटोगे तो ही नए का जन्म होगा।’’आइये समझते हैं की भगवान शिव का असल में सूत्र क्या हैं. ओशो कहते हैं कि....

जीवन-सत्य की खोज दो मार्गों से हो सकती है। एक पुरुष का मार्ग है--आक्रमण का, हिंसा का, छीन-झपट का। एक स्त्री का मार्ग है--समर्पण का, प्रतिक्रमण का। विज्ञान पुरुष का मार्ग है; विज्ञान आक्रमण है। धर्म स्त्री का मार्ग है; धर्म नमन है। जीवन का रहस्य तुम्हें मिल सकेगा, अगर नमन के द्वार से तुम गए। अगर तुम झुके, तुमने प्रार्थना की, तो तुम प्रेम के केंद्र तक पहुंच पाओगे। परमात्मा को रिझाना करीब-करीब एक स्त्री को रिझाने जैसा है। उसके पास अति प्रेमपूर्ण, अति विनम्र, प्रार्थना से भरा हृदय चाहिए। और जल्दी वहां नहीं है।

 तुमने जल्दी की, कि तुम चूके। वहां बड़ा धैर्य चाहिए। तुम्हारी जल्दी, और उसका हृदय बंद हो जाएगा। क्योंकि जल्दी भी आक्रमण की खबर है। इसलिए जो परमात्मा को खोजने चलते हैं, उनके जीवन का ढंग दो शब्दों में समाया हुआ है: प्रार्थना और प्रतीक्षा। प्रार्थना से शास्त्र शुरू होते हैं और प्रतीक्षा पर पूरे होते हैं। पूरब के सभी शास्त्र परमात्मा को नमस्कार से शुरू होते हैं। और वह नमस्कार केवल औपचारिक नहीं है। वह केवल एक परंपरा और रीति नहीं है। वह नमस्कार इंगित है कि मार्ग समर्पण का है, और जो विनम्र हैं, केवल वे ही उपलब्ध हो सकेंगे। और जो आक्रामक हैं, अहंकार से भरे हैं; 

जो सत्य को भी छीन-झपट करके पाना चाहते हैं; जो सत्य के भी मालिक होने की आकांक्षा रखते हैं; जो परमात्मा के द्वार पर एक सैनिक की भांति पहुंचे हैं--विजय करने, वे हार जाएंगे। वे क्षुद्र को भला छीन-झपट लें, विराट उनका न हो सकेगा। वे व्यर्थ को भला लूट कर घर ले आएं; लेकिन जो सार्थक है, वह उनकी लूट का हिस्सा न बनेगा। पश्चिम इस बात को समझ भी नहीं पाता। उनकी पकड़ के बाहर है कि लोग गीता को हजारों साल से क्यों पढ़ रहे हैं?

उनको खयाल में नहीं है कि पाठ की प्रक्रिया हृदय में उतारने की प्रक्रिया है। उसका संबंध तो अपने हृदय की और उसके बीच की जो दूरी है, उसको मिटाने से है। धीरे-धीरे हम इतने लीन हो जाएं उसमें कि पाठी और पाठ एक हो जाए; पता ही न चले कि कौन गीता है और कौन गीता का पाठी। ऐसे भाव से जो चले--यह स्त्री का भाव है। यह समर्पण की धारा है। इसे खयाल में ले लेना। नमन से हम चलें तो शिव के सूत्र समझ में आ सकेंगे। —ओशो

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