कंजूस मारवाड़ी - धन होने पर भी निर्धन, पढ़िए शानदार कहानी

आपने कंजूसों की बहुत सी कहानी सुनी होंगी लेकिन आज हम आपकों एक ऐसे आदमी की कहानी सुनायेंगे जो कंजूसों का सरदार था. लेकिन वो समाज में अपनी ऐसी छवि बनायें रखा हुआ था की वो बहुत नर्म और सहज आदमी हैं. वो अपने बेटे बेटी की शादी भी केवल इसी लिए कर रहा हैं. ताकि उसके व्यपारी साथी को शक न हो की ये विनर्म नहीं बल्कि कंजूस हैं. ऐसे ही व्यक्ति के घर का एक दिन ओशो मेहमान बने थे. ओशो बताते हैं उनके साथ क्या हुआ 

कहानी 

मैं गांव में कंजूस के घर मेहमान हुआ, महा कंजूस मगर सारे गाँव मे उसका आदर ये की सादगी इसको कहते हैं। सादा जीवन ऊंचे विचार।
“क्या ऊंचे विचार और ऊंचा जीवन साथ साथ नहीं हो सकता?”और सदा जीवन ही जीना हो तो ये तिजोरी को क्यों भर कर रखे हुए हो
मगर हर गांव में तुम पाओगे कंजूसों को लोग कहते हैं सदा जीवन, है लाखपति लेकिन देखो कपड़े कैसे पहनता है।

सेठ धन्नालाल की पुत्री जब 28 वर्ष की हो गई और आसपास के लोग ताना देने लगे की यह कंजूस दहेज देने के भय से अपनी बेटी को कुंवारी रखे हुए है। तो सेठ जी ने सोचा की अब जैसे भी हो लड़की का विवाह कर ही देना चाहिए क्योंकि जिन लोगों के बीच रहना है उठाना बैठना है धंधा व्यापार करना है उनकी नजरों में गिरना ठीक नहीं उन्होंने लड़के की खोज शुरू कर दी पड़ोस के ही गांव के एक मारवाड़ी धनपत्ति का बेटा चंदूलाल उन्हें पसंद आया। जब वे लोग सगाई करने के लिए धन्नालाल के यहां आए तो चंदूलाल के बाप ने पूछा आपकी बेटी बुद्धिहीन अर्थात फिजूल खर्ची तो नहीं, इस बात का क्या प्रमाण।

क्योंकि हमारे घर में आज तक कोई फिजूल खर्च व्यक्ति नहीं हुआ है और हम नहीं चाहते की कोई आके हमारे परंपरा से जुड़ती चली आ रही संपत्ति को नष्ट करे।
बाप दादों की जमीन जायदाद हमें जान से भी ज्यादा प्यारी है यह देखिए मेरी पगड़ी मेरे बाप को मेरे दादा ने दी थी दादा को उनके बाप ने उन्हें उनके पितामह ने और उनके पितामह नें अपने बजाज दोस्त से उधार खरीदी थी।

क्या आपके पास भी ऐसा फिजूल खर्ची ना होने का कोई ठोस प्रमाण, धनलाल जी बोले क्यों नहीं – क्यों नहीं हम भी पक्के मारवाड़ी हैं कोई एरेगेरे-नत्थूखेरे नहीं फिर उन्होंने जोर से भीतर की और आवाज़ देकर कहा बेटी धन्नों जरा मेहमानों के लिए सुपारी वगैरा तो ला। चंद क्षणों प्रांत धन्नालाल की बेटी सुंदर अल्युमिनियम की कस्तूरी में एक बड़ी सी सुपाड़ी लेकर हाजिर हुई सबसे पहले उसने अपने बाप के सामने प्लेट रखा। धन्नालाल ने सुपारी को उठाके मुंह में रखा आधे मिनट तक यहां वहां मुंह में घुमाया फिर सुपाड़ी बाहर निकाल कर सावधानीपूर्वक रुमाल से पोंछकर तस्तरी में रख अपने भावी समाधि की और बढ़ते हुए कहा लीजिए अब आप सुपाड़ी लीजिए।

चंदूलाल और उसका बाप दोनों ये देखकर ठगे से रह गए उन्हें हथपरब देख कर धन्नालाल बोले अरे संकोच की क्या बात अपना ही घर समझिए तकल्लुफ की कतई जरूरत नहीं सुपारी तो हमारी पारंपरिक संपदा है पिछली चार शताब्दियों से हमारे परिवार के लोग इसे खाते रहे हैं। मेरे बाप, मेरे बाप के बाप, मेरे बाप के दादा, मेरे दादा के दादा, सभी के मूहों में ये रखी रही। मेरे दादा के दादा के दादा को बादशाह अकबर के राजमहल के बाहर पड़ी मिली थी।

कहानी का सार

दुनिया में लोग ऐसे ही जीवन जी ही रहे हैं उन्हें सुख मिले तो कैसे बड़ी मुश्किल हैं. सुखी होने के लिए पुराने आधार बदलने की जरुरत हैं. यही आप सुख नहीं बाटेंगे तो वो बढेगा कैसे ? सुख बांटने में बढ़ता है, ना बांटने से घटता है..

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