वीरांगना स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रानी लक्ष्मीबाई

पाँच हज़ार वर्षों से भी पुराने इतिहास वाले भारत की मिट्टी के कण-कण में बसती है यहाँ की वीरों की अमर कहानियाँ, जिन्हें सुन कर आज भी बच्चे-बच्चे का रोम-रोम रोमांचित हो उठता है। यहाँ की संस्कृति, सभ्यता और सम्पन्नता को देख कर ललचाई निगाहों से लूटने के इरादे से अनेकों आतताई आये और कई सालों तक इसका दोहन भी किया, लेकिन यह भारत जिसकी हिफाज़त उत्तर में पर्वत राज हिमालय कर रहा है तो दक्षिण में विशाल सागर इसके पाँव पखार रहा है, उसके अस्तित्व को कोई भी न मिटा सका। आज भी दुनिया का सिरमौर भारत अपनी दृढ़ता के साथ अडिग खड़ा है। इसी अडिग भारतवर्ष के वक्षस्थल पर स्थापित है वो राज्य जिसकी धमक पूरा राष्ट्र महसूस करता है और वो राज्य है उत्तर प्रदेश।

ये वही उत्तर प्रदेश है जहाँ एक ओर त्रिवेणी का संगम है तो दूसरी ओर यही उत्तर प्रदेश श्री राम और श्री कृष्ण की जन्मभूमि है और यहीं विराजित हैं संसार की रक्षा के लिए विष को पीने वाले महादेव जिनकी भूमि है काशी और उन्हें कहते हैं काशी विश्वनाथ। इस प्रदेश की भूमि विभिन्न नगरों में ऐसे वीर और वीरांगनाओं ने जन्म लिया और उनके शौर्य की गाथाएँ आज भी जन-जन में प्रचलित हैं। ऐसा ही एक शौर्य नगर है जिसकी रक्षा के लिए एक वीरांगना ने उस अंग्रेज़ी हुक़ूमत के नुमाइंदों को नाको चने चबवा दिए, जिनका कभी सूर्य अस्त नहीं होता था और अंत में उन्हें भी उस वीरांगना की वीरता को सलाम करना ही पड़ा। आज हम जिस शौर्य नगर की गाथा हम आपको सुनाने जा रहे हैं वो उत्तर प्रदेश के दक्षिण दिशा में स्थापित और मध्यप्रदेश से सटा हुआ खण्ड है जिसे कहते हैं बुंदेलखंड। यह वही वीरों की भूमि है जिसकी गाथा लोकगीतों में ख़ूब गायी जाती है।

आज का शौर्य नगर जो है उसकी वीरांगना के बारे में हिंदी कवियित्री सुभद्राकुमारी कुमारी चौहान लिखती हैं...

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जी हाँ ! आज हम आपको सुनाएंगे कहानी रानी लक्ष्मीबाई की धरती झाँसी की।

बेतवा और पहूज नदी के बीच स्थित ऐतिहासिक नगर झाँसी चंदेल राजाओं का गढ़ हुआ करता था। उस समय इसे बलवंत नगर के नाम से जाना जाता था, लेकिन 11वीं शताब्दी में झाँसी का महत्त्व बहुत कम होने लगा था। समय बीतता गया और फिर वो वक्त भी आया जब झाँसी पुनः अपनी महत्ता स्थापित करने लगा। झाँसी का महत्वे सत्रहवीं शताब्दी में ओरछा के राजा वीर सिंह देव बुंदेला के शासन काल में बढ़ा। इस दौरान राजा वीर सिंह और उनके उतराधि‍कारि‍यों ने झाँसी में अनेक ऐति‍हासि‍क इमारतों का नि‍र्माण करवाया। एक दि‍न ओरछा के कि‍ले पर राजा वीर सिंह और जैतपुर के राजा आपस में बात कर रहे थे। बातों-बातों में जैतपुर के राजा ने कहा कि बलवंत नगर यहां से ‘झाईं सी’ लग रहा है। यह शब्दम राजा वीर सिंह को काफी पसंद आया और धीरे-धीरे इतना प्रचलि‍त हुआ कि बलवंत नगर का नाम झाँसी पड़ गया।

समय अपनी अबाध गति से आगे बढ़ता गया और झाँसी के शासक बदलते गये। फिर आया साल 1838, जब गंगाधर राव को झाँसी का राजा घोषित किया गया। राजा गंगाधर राव एक बहुत अच्छे प्रशासक थे। वह बहुत उदार और सहानुभूतिपूर्ण कुशल शासक थे। उन्होंने झाँसी को बहुत अच्छा प्रशासन दिया। उनके शासनकाल के दौरान झाँसी की स्थानीय आबादी बहुत संतुष्ट थी। 

लेकिन एक राजा अपनी रानी के बगैर अधूरा होता है और वीर राजा गंगाधर राव के लिए एक योग्य, कुशल और वीरांगना रानी ही उचित रहतीं और वो रानी बनीं मोरोपंत ताम्बे और भागीरथी बाई की लाडली “मणिकर्णिका” जिन्हें पूरा देश जानता है रानी लक्ष्मीबाई के नाम से।

राजा गंगाधर राव से विवाह के उपरांत रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। झाँसी के कोने-कोने में आनंद की लहर दौड़ गई, लेकिन ये ख़ुशी लम्बे समय तक टिक न पाई और जन्म के महज़ चार महीने बाद ही उस बालक का निधन हो गया।

राजा गंगाधर राव को तो इतना गहरा धक्का पहुंचा कि वो गंभीर रूप से बीमार हो गए और कुछ दिनों में ही अपना शरीर त्याग दिया। यद्यपि महाराज का निधन महारानी लक्ष्मीबाई के लिए असहनीय था, लेकिन फिर भी वो घबराई नहीं, उन्होंने विवेक से काम लिया। राजा गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही अपने परिवार के बालक दामोदर राव को अपना दत्तक पुत्र बना दिया था और इसकी सूचना अंगरेजी सरकार को दे दी थी। परंतु ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया औरराज्य को हड़पने की तैयारी कर दी।

फरवरी 1854 में डलहौजी ने गोद की नीति के अंतर्गत दत्तकपुत्र दामोदर राव की गोद अस्वीकृत कर दी और झांसी को अंगरेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। पॉलिटिकल एजेंट की सूचना पाते ही रानी के मुख से यह वाक्य प्रस्फुटित हो गया, “मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।” 7 मार्च 1854 को झांसी पर अंगरेजों का अधिकार हुआ। झांसी की रानी ने पेंशन अस्वीकृत कर दी और नगर के राजमहल में निवास करने लगीं।यहीं से भारत की प्रथम स्वाधीनता क्रांति का बीज प्रस्फुटित हुआ।

सन 1857 में जब भारत में स्वतंत्रता आंदोलन का पहला बिगुल बजा था, तब रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेज हुकूमत के छक्के छुड़ा दिये थे। तब उनकी उम्र महज 22 वर्षी थी। लेकिन इतनी कम उम्र में भी अपनी परिपक्व सोच और सूझबूझ तथा बहादुरी के बल पर ही वह अंग्रेजों से लोहा ले पायीं और तब से आज तक न केवल झांसी में, बल्कि पूरे भारत में उनकी वीरता के किस्से सुनाए जाते हैं।

Leave a Reply



comments

Loading.....
  • No Previous Comments found.