दुष्यंत कुमार ने देश के बेचैनी को दिया जुबान

भारत के अतीत में बहुत से कविराज हुए हैं जिनकी कवितायेँ हमें मंत्रमुग्ध कर देती हैं, उनकी लेखनीं हमारें मन में बैठी हुई शांति को क्रांति की तरफ़ मोड़ देती हैं, हमें हिम्मत देती हैं और नई राह दिखाती हैं. ऐसे ही एक कवि हुए दुष्यंत कुमार जिनकी रचनाएँ कई बड़ी आंदोलनों की हिस्सा बनी थी, 1974 में जे.पी की सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से लेकर अन्ना हजारे के आंदोलन तक में इनकी कविताओं ने बड़ी भूमिका निभाई थी. आज के दौर में भी जब सत्ता के शीष पर बैठे हुए लोग अपने आप को प्रतिनिधि की जगह निधिपति समझने लगते हैं तो देश में बेचैनी बढ़ती हैं ऐसे में जनता के विचारों को नई राह मिलती हैं और उनमे क्रांति की तरंगे उठने लगती हैं, जो देश की दशा और दिशा दोनों बदल के रख देती हैं. 

दुष्यंत कुमार ऐसे ही अनूठे कवी थे जो आम जनता की आवाज में अपनी कवितायेँ लिखते थे और वो कुमार ही थे जिन्होंने देश के आम जनता के बैचेनी को जुबान दिया. दुष्यंत की भाषा में सरलता ऐसी की पानी की तरह गले से उतर जाए और शायरी में आग इतनी की एक पंक्ति लाखों भीड़ के खून में उबाल ला दे. 

पढ़िए दुष्यंत कुमार की कवितायेँ.

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

 

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिए
कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिए,

कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए। 
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है,

चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए। 
न हो क़मीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे,

ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफ़र के लिए। 
ख़ुदा नहीं, न सही, आदमी का ख़्वाब सही,

कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए। 
वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,

मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए। 
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शाइर की,

ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए। 
जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले,

 मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए। 

 दुष्यंत कुमार

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