"ये मिसरा नहीं है वज़ीफा मेरा है"- ख़ुमार बाराबंकवी

आज सी न्यूज़ भारत के साहित्य में हम जिस शख्सियत की बात करने जा रहे हैं वो उस शर्मीले, लजीले और रसीले अंदाज़ के रसिया हैं जिसे क्लासिक ग़ज़ल कहा जाता है। मुश्किल से मुश्किल घड़ी आ जाने के बावजूद भी उन्होंने कभी शायरी का दामन नहीं छोड़ा। हसरत जयपुरी और जिगर मुरादाबादी के बाद किसी बाकमाल शायर का नाम आता है तो वो हैं ख़ुमार बाराबंकवी। ख़ुमार बाराबंकवी लिखते हैं कि "न हारा है इश्क, न दुनिया थकी है, दिया जल रहा है, हवा चल रही है।" ख़ुमार साहब की शायरी की कुछ बूँदों से आज हम आपको सराबोर करने के लिए लाए हैं उनकी कुछ ग़ज़लें, जो यकीनन आपके ज़हन को भी महका देंगी और अपने रंग में रंग देंगी...।

ये मिसरा नहीं है वज़ीफा मेरा है,
खुदा है मुहब्बत, मुहब्बत खुदा है।

कहूँ किस तरह में कि वो बेवफा है,
मुझे उसकी मजबूरियों का पता है।

हवा को बहुत सरकशी का नशा है,
मगर ये न भूले दिया भी दिया है।

मैं उससे ज़िदा हूँ, वो मुझ से ज़ुदा है,
मुहब्बत के मारो का बज़्ल-ए-खुदा है।

नज़र में है जलते मकानो मंज़र,
चमकते है जुगनू तो दिल काँपता है।

उन्हे भूलना या उन्हे याद करना,
वो बिछड़े है जब से यही मशगला है।

गुज़रता है हर शक्स चेहरा छुपाए,
कोई राह में आईना रख गया है।

कहाँ तू "खुमार" और कहाँ कुफ्र-ए-तौबा,
तुझे पारशाओ ने बहका दिया है।।

मुझ को शिकस्त-ए-दिल का मज़ा याद आ गया,
तुम क्यों उदास हो गए क्या याद आ गया।

कहने को ज़िन्दगी थी बहुत मुख़्तसर मगर,
कुछ यूँ बसर हुई कि ख़ुदा याद आ गया।

वाइज़ सलाम ले कि चला मैकदे को मैं,
फिरदौस-ए-गुमशुदा का पता याद आ गया।

बरसे बगैर ही जो घटा घिर के खुल गई,
एक बेवफ़ा का अहद-ए-वफ़ा याद आ गया।

मांगेंगे अब दुआ के उसे भूल जाएँ हम,
लेकिन जो वो बवक़्त-ऐ-दुआ याद आ गया।

हैरत है तुम को देख के मस्जिद में ऐ 'ख़ुमार',
क्या बात हो गई जो ख़ुदा याद आ गया...।।

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