"ज़िंदगी भी किसी मेहबूब से कुछ कम तो नहीं"- हफ़ीज़ बनारसी
![](news-pic/2022/June/11-June-2022/b-Zindagi-bhi-kisi-mehboob-sekuc-110622152620.jpg)
महादेव की नगरी काशी जिसे बनारस के नाम से भी जाना जाता है, उसकी सरज़मीं ने ऐसे अनेकों साहित्यकारों को जन्म दिया जिनकी कलम से निकले बोल पढ़ने-सुनने वालों के दिलों को टटोल जाते हैं। गंगा किनारे बसी बनारस की धरती पर ही 20 मई साल 1933 को उर्दू के एक ऐसे शायर का जन्म हुआ जिसकी कलम से निकली शायरी दिल को लुभाती भी है और एहसासों को जगती भी है। उस बाकमाल शायर का नाम है मुहम्मद अब्दुल हफ़ीज़ उर्फ़ “हफ़ीज़ बनारसी”। आज सी न्यूज़ भारत के साहित्य में हम आपके लिए लेकर आये हैं हफ़ीज़ बनारसी साहब की कलम से निकली हुई कुछ ग़ज़लें...।
दिल की आवाज़ में आवाज़ मिलाते रहिए,
जागते रहिए ज़माने को जगाते रहिए।
दौलत-ए-इश्क़ नहीं बाँध के रखने के लिए,
इस ख़जाने को जहाँ तक हो लुटाते रहिए।
ज़िंदगी भी किसी मेहबूब से कुछ कम तो नहीं,
प्यार है उस से तो फिर नाज़ उठाते रहिए।
ज़िंदगी दर्द की तस्वीर न बनने पाए,
बोलते रहिए ज़रा हँसते हँसाते रहिए।
रूठना भी है हसीनों की अदा में शामिल,
आप का काम मनाना है मनाते रहिए।
फूल बिखराता हुआ मैं तो चला जाऊँगा,
आप काँटे मिरी राहों में बिछाते रहिए।
बे-वफ़ाई का ज़माना है मगर आप ‘हफ़ीज़’,
नग़मा-ए-मेहर-ए-वफा सब को सुनाते रहिए।।
जो पर्दों में ख़ुद को छुपाए हुए हैं,
क़यामत वही तो उठाए हुए हैं।
तिरी अंजुमन में जो आए हुए हैं,
ग़म-ए-दो-जहाँ को भुलाए हुए हैं।
पहाड़ों से भी जो उठाए न उट्ठा,
वो बार-ए-वफ़ा हम उठाए हुए हैं।
कोई शाम के वक़्त आएगा लेकिन,
सहर से हम आँखें बिछाए हुए हैं।
जहाँ बिजलियाँ ख़ुद अमाँ ढूँडती हैं,
वहाँ हम नशेमन बनाए हुए हैं।
ग़ज़ल आबरू है तू उर्दू ज़बाँ की,
तिरी आबरू हम बचाए हुए हैं।
ये अशआर यूँ ही नहीं दर्द-आगीं,
'हफ़ीज़' आप भी चोट खाए हुए हैं।।
No Previous Comments found.