कांवड़ियों के बारे में कितना जानते हैं आप , सावन और शिव से क्या है इनका नाता ?
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ॐ नमः शिवाय
कर्ता करे न कर सके, शिव करे सो होय|
तीन लोक नौ खंड में,
महाकाल से बड़ा न कोय।।
सावन के पावन महिने में लोगों की आस्था अपने चरम पर है .. हर तरफ भगवान शिव के जयकारे लग रहे हैं . देश मानों शिवमय हो चुका है , वृक्षों की शिखाएं भी खूबसूरत हो चुकी है ....और शिव मंदिरों में तो अलग ही ऊर्जा का संचार हो रहा है. रास्ते कावड़ियों की चहलकदमी से महक रहे हैं तो शिव के जयकारें हर जगह लग है ...ऐसे में आपको सावन के विषय में कितना पता है इस बात के बारे में सोच के देखिए..... जो कावंड़िए आजकल रास्तों को सुशोभित कर रहे हैं उनके बारे मे कितना जानते हैं आप....क्या आपको पता है कि इन कावड़ियों का भगवान शिव से कैसा नाता है ..और इसके पीछे की कहानी क्या है ,अगर नहीं तो आज हम इस विषय के बारे में आपको बताएंगे –
इस यात्रा के पीछे कई पौराणिक कहानियां है, लेकिन पुराणों के मुताबिक, सबसे ज्यादा प्रचलित कहानी सावन के महीने में समुद्र मंथन से संबंधित है. समुंद्र मंथन के दौरान महासागर से निकले विष को पी लेने के कारण भगवान शिव का कंठ नीला हो गया.. तब से उनका नाम 'नीलकंठ' पड़ गया, लेकिन विष के नकारात्मक असर ने नीलकंठ को घेर लिया था. उस विष के असर को कम करने के लिए देवी पार्वती समेत सभी देवी-देवताओं ने उन पर पवित्र नदियों का शीतल जल चढ़ाया, तब जाकर भगवान शिव विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त हुए... यहीं से कांवड़ यात्रा की परंपरा की शुरुआत हुई.
कांवडियों में सबसे पहले नाम श्रवण कुमार का आता है.. माना जाता है, कि उन्होंने ही सबसे पहले त्रेतायुग में कांवड़ यात्रा की थी.. जब श्रवण कुमार अपने माता-पिता को तीर्थ यात्रा करा रहे थे, तब उनके माता-पिता ने हरिद्वार में गंगा स्नान करने की इच्छा जताई... माता-पिता की इच्छा को पूरी करने के बाद कुमार लौटते समय अपने साथ गंगाजल ले गए...यहीं से कांवड़ यात्रा की शुरुआत मानी जाती है..
वहीं दूसरी पौराणिक कथा के मुताबिक भगवान परशुराम ने अपने आराध्य देव शिव के नियमित पूजन के लिए पुरा महादेव में मंदिर की स्थापना कर कांवड़ में गंगाजल से पूजन कर कांवड़ परंपरा की शुरुआत की, जो आज भी देशभर मे काफी प्रचलित है. भगवान परशुराम श्रावण मास के हर सोमवार को कांवड़ में जल ले जाकर शिव जी की अराधना करते थे.
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