हिन्दू धर्म मे कुआं पूजन क्यों हैं ज़रूरी, जानिये इसका महत्व


हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार, कुआं पूजन की परंपरा का विशेष महत्व होता है. यह परंपरा काफी सालों पुरानी है.यह परंपरा सनातन हिंदू धर्म से जुड़ी परंपराएं प्रकृति और मानव को जोड़ने का कार्य करती हैं, इसलिए  इसमें चंद्रमा, सूर्य, पेड़-पौधों की तरह कुआं पूजन करने का भी विधान है. हालांकि, कुएं के लुप्त होने के कारण अब यह परंपरा भी धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है. लेकिन, आज भी कई जगह कुआं पूजन के बिना जन्म और विवाह जैसे संस्कार संपन्न नहीं होते. दिल्ली के आचार्य गुरमीत सिंह जी से जानते हैं, कैसे शुरू हुई कुआं पूजन की परंपरा. विवाह और संतान प्राप्ति पर कैसे किया जाता है कुआं पूजन.

कृष्ण जन्म के ग्यारहवें दिन माता यशोदा ने उनका जलवा पूजन किया था। इसी दिन को डोल ग्यारस के रूप में मनाया जाता है। जलवा पूजन के बाद ही संस्कारों की शुरुआत होती है। जलवा पूजन को कुआं पूजन भी कहा जाता है। डोल ग्यारस के अवसर पर कृष्ण मंदिरों में पूजा-अर्चना होती है तथा भगवान कृष्ण की मूर्ति को डोल में विराजमान कर उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है। इस अवसर पर कई शहरों में मेले, चल समारोह और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी होता है। शुक्ल-कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को चंद्रमा की ग्यारह कलाओं का प्रभाव जीवों पर पड़ता है।शरीर की अस्वस्थता और मन की चंचलता स्वाभाविक रूप से बढ़ जाती है। इसी कारण उपवास द्वारा शरीर को संभालना और इष्ट पूजन द्वारा मन को नियंत्रण में रखना एकादशी व्रत विधान का मुख्य रहस्य है। एकादशी तिथि (ग्यारस) का वैसे भी सनातन धर्म में बहुत महत्‍व माना गया है। इस एकादशी को परिवर्तिनी एकादशी, जयझूलनी एकादशी, वामन एकादशी आदि के नाम से भी जाना जाता है

श्रीकृष्ण के जन्म के बाद माता यशोदा ने किया कुआं पूजन-

कुआं पूजन की परंपरा श्रीकृष्ण के जन्म से जुड़ी हुई है. कहा जाता है कि कृष्ण के जन्म के ग्यारहवें दिन माता यशोदा ने जलवा पूजा की थी. इस दिन को डोल ग्यारस के रूप में भी जाना जाता है. जलवा पूजन को ही जल यानी कुआं पूजा कहते हैं.

1- शादी-विवाह में कुआं पूजन-

विवाह के समय जब लड़का बारात लेकर निकलता है तो मां द्वारा कुआं पूजन किया जाता है. एक सूप में मिट्टी के 2 सकोरे, सींक, अक्षत, हल्दी और बताशे आदि रखे जाते हैं. इन चीज़ों से लड़के की मां कुआं पूजन करती है और दूल्हा कुएं की सात बार परिक्रमा करता है. हर परिक्रमा के दौरान वह सींक को कुएं में डालता है. मां नाराज होने का नाट्य करते हुए कुएं में कूद जाने की धमकी देती है तो बेटा मां से कहता है नाराज मत हो मां, मैं तेरे लिए बहू लाऊंगा. फिर दूल्हा एक तेल की कटोरी में अपना मुख देखता है और बारात लेकर निकल जाता है. इसके बाद वह पीछे मुड़कर नहीं देखता और सीधा दुल्हन लेकर ही घर लौटता है.


2- संतान प्राप्ति पर कुआं पूजन-

पुत्र प्राप्ति पर कुआं पूजन किया जाता है. हालांकि, आजकल लोग कन्या के जन्म के बाद भी कुआं पूजन करते हैं. जन्म के बाद जच्चा यानी बच्चे की मां द्वारा कुआं पूजन किया जाता है. इसके लिए बच्चे और मां को गुनगुने पानी से स्नान कराया जाता है. फिर नए कपड़े पहनाए जाते हैं. पूजा के लिए थाली में सुपारी, पान, आटा, बताशे, कुमकुम, अक्षत, गुड़, फल और अनाज रखे जाते हैं. बच्चे की मां या घर की बड़ी महिला माथे पर एक खाली कलश और चाकू रखती है. मंगलगीत गाते हुए महिलाएं कुआं के पास पहुंचती हैं.पूजा के लिए सबसे पहले कुएं के पास आटे और कुमकुम से स्वास्तिक बनाकर भोग लगाया जाता है. फिर पूजा की जाती है. इसके बाद प्रार्थना की जाती है कि जिस तरह कुएं में पानी की कमी नहीं है, उसी तरह जच्चा के स्तनों में दूध की कमी न हो.

 

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