कस्टोडियल डेथ! इशारों को अगर समझो... राज को राज रहने दो

रिपोर्टर - सत्येन्द्र 

एक सर्वे के अनुसार पिछले पांच वर्षों में, हिरासत में मौतों की सबसे अधिक संख्या (80) है जो गुजरात में दर्ज की गई है, इसके बाद महाराष्ट्र में (76), उत्तर प्रदेश में (41), तमिलनाडु में (40) और बिहार में यह संख्या (38) हैं।

पुलिस अभिरक्षा में मौत होना कोई नई बात नही है । ऐसा पहले भी होता रहा है आज भी होता है और आगे भी होता रहेगा । इस तरह की हर घटना के बाद आरोपी पुलिसकर्मियों के खिलाफ धरना प्रदर्शन होता है... धरने के बाद हर बार की तरह निष्पक्ष जाँच के आश्वाशन वाली पुरानी घिसी पिटी नौटंकी होती है.. इस प्रायोजित नौटंकी के बाद मुकदमा और फिर मुकदमे के बाद पोस्टमार्टम का झुनझुना पकड़ाया जाता है.... झुनझुना वास्तव में झुनझुना तब साबित हो जाता है जब पोस्टमार्टम रिपोर्ट के बाद भी मौत की वजह नही मिलती और करिश्माई सीन क्रिएट कर बिसरा सुरक्षित किये जाने वाला भीषण ड्रामा करते हुए कर्तव्यों की इतिश्री कर ली जाती है ! सब कुछ बिल्कुल ठीक वैसा ही वेल स्क्रिप्टेड गढ़ा जाता है, जैसा अक्सर कई मामलों में पहले भी गढ़ा जाता रहा है । पुलिस कस्टडी में गोला क्षेत्र में हुई मौत के मामले में भी थानेदार समेत तमाम वर्दीधारियों के खिलाफ हत्या का मुकदमा लिखे जाने के बाद अभी तक किसी वर्दीधारी के गिरफ्तारी की सूचना नही मिल सकी है । मृतक के खिलाफ छेड़छाड़ की शिकायत मिलने पर जेम्स बॉन्ड अवतार बनी गोला पुलिस उसे राकेट की मानिंद थाने पर उठा लायी थी, लेकिन पुलिस कस्टडी में हुई मौत के इस मामले में नामजद वर्दीधारियों के बारे में ठीक वैसे ही अब तक कोई सूचना नही मिली है जैसे कुछ साल पहले गोरखपुर के होटल में व्यापारी की हत्या होने के बहुत दिनों बाद तक आरोपी इंस्पेक्टर नगद नारायण की कोई सूचना नही मिली थी । इस मामले में जनता की हितैषी बनने का नाटक करने वाली किसी राजनैतिक पार्टी को अब तक कुछ भी कहने का समय नही मिला है लेकिन आजाद अधिकार सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने इस मामले में दोषियों की गिरफ्तारी के लिए पुलिस को 7 दिन का अल्टीमेटम दिया है ।

https://www.youtube.com/watch?v=7_EqFLy1u08

पूरा सिस्टम जब अन्याय और अन्यायी को इस्टैबलिश करने में जुटा हो तो एक अकेला इनसे लड़ते हुए अति शीघ्र किताबी लोकतंत्र और असली नरकतंत्र के परम ज्ञान को हासिल कर लेता है । मैंने भी ये ज्ञान हासिल किया है इसलिए मुझे अक्सर लगता है और अब मैं दृढ़ता से मानने लगा हूं कि भारतीयों के डीएनए में व्यवस्था के खिलाफ लड़ने वाला कोई कीड़ा नहीं है ही नही । ये सिस्टम के आगे नतमस्तक रहने वाले लोग हैं । रीढ़विहीन दास मानसिकता वाली चाटुकार प्रजा है ये । जो इनके आगे टुकड़े फेंक दे, वो ही इनके लिए भगवान है तो फिर ऐसे कीड़ों मकोड़ों के लिए लड़ना ही नहीं चाहिए । बेकार है इनके लिए अपना समय और अपनी उर्जा खर्च करना । खाइए पीजिए मौज करिए और सूतिया जनता को परम सूतिया बनाइए, जैसे सब बना रहे हैं । पर क्या करें, प्रकृति भी कुछ लोगों को ऐसा रचकर भेजती है कि दूसरों की खातिर तीसरे को उंगली किए बगैर, और बेवजह में पड़ी लकड़ी लिए बगैर उनका खाना ही नहीं पचता । मैंने तो तमाम क्रांतियाँ कर ली है । सूतियों की खातिर सार्वजनिक यात्रा के सुख-दुख देख चुका हूं । बड़े बड़े चेहरों पर चढ़े नकाब को देख चुका हूं । इसलिए अब साला कोई चैरिटी करने का मन ही नहीं करता लेकिन फिर भी आदत से मजबूर हूँ इसलिए अभी भी कभी कभार पड़ी लकड़ी लेता रहता हूँ । अंत मे आपसे उम्मीद करता हूँ कि मेरी उक्त बातों से असहमत होते हुए भी आप इज्जत से पेश आयेंगे, और मुझे फिर से पड़ी लकड़ी लेने को बाध्य नही करेंगे

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