जानकी जीवन, विजयदशमी तुम्हारी आज है , "मैथिलीशरण गुप्त"

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे। हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं  उन्हें साहित्य जगत में 'दद्दा' नाम से सम्बोधित किया जाता था.. इन्होने कई सारी कवितओं की रचना की हैं. तो चलिए मैथिलीशरण गुप्त की कविता जानकी जीवन , पर एक नजर डालते हैं...


जानकी जीवन, विजयदशमी तुम्हारी आज है, 
दीख पड़ता देश में कुछ दूसरा ही साज है। 
राघवेंद्र! हमें तुम्हारा आज भी कुछ ज्ञान है, 
क्या तुम्हें भी अब कभी आता हमारा ध्यान है? 

वह शुभ स्मृति आज भी मन को बनाती है हरा, 
देव! तुम तो आज भी भूली नहीं है यह धरा। 
स्वच्छ जल रखती तथा उत्पन्न करती अन्न है, 
दीन भी कुछ भेंट लेकर दीखती संपन्न है॥ 

व्योम को भी याद है प्रभुवर तुम्हारी वह प्रभा! 
कीर्ति करने बैठती है चंद्र-तारों की सभा। 
भानु भी नव-दीप्ति से करता प्रताप प्रकाश है, 
जगमगा उठता स्वयं जल, थल तथा आकाश है॥ 

दुःख में ही है! तुम्हारा ध्यान आया है हमें, 
जान पड़ता किंतु अब तुमने भुलाया है हमें। 
सदय होकर भी सदा तुमने विभो! यह क्या किया, 
कठिन बनकर निज जनों को इस प्रकार भुला दिया॥ 

है हमारी क्या दशा सुध भी न ली तुमने हरे? 
और देखा तक नहीं जन जी रहे हैं या मरे। 
बन सकी हमसे न कुछ भी किंतु तुमसे क्या बनी? 
वचन देकर ही रहे, हो बात के ऐसे धनी! 
आप आने को कहा था, किंतु तुम आए कहाँ? 
प्रश्न है जीवन-मरण का हो चुका प्रकटित यहाँ। 
क्या तुम्हारा आगमन का समय अब भी दूर है? 
हाय तब तो देश का दुर्भाग्य ही भरपूर है! 

आग लगने पर उचित है क्या प्रतीक्षा वृष्टि की, 
यह धरा अधिकारिणी है पूर्ण करुणा दृष्टि की। 
नाथ इसकी ओर देखो और तुम रक्खो इसे, 
देर करने पर बताओ फिर बचाओगे किसे? 

बस तुम्हारे ही भरोसे आज भी यह जी रही, 
पाप पीड़ित ताप से चुपचाप आँसू पी रही। 
ज्ञान, गौरव, मान, धन, गुण, शील सब कुछ खो गया, 
अंत होना शेष है बस और सब कुछ हो गया॥ 
यह दशा है इस तुम्हारी कर्मलीला भूमि की, 
हाय! कैसी गति हुई इस धर्म-शीला भूमि की। 
जा घिरी सौभाग्य-सीता दैन्य-सागर-पार है, 
राम-रावण-वध बिना संभव कहाँ उद्धार है? 

शक्ति दो भगवान् हमें कर्तव्य का पालन करे, 
मनुज होकर हम न परवश पशु-समान जिएँ-मरें। 
विदित विजय-स्मृति तुम्हारी यह महामंगलमयी, 
जटिल जीवन-युद्ध में कर दे हमें सत्वर जयी॥ 

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