निराला के वो गीत जिन्हे आज भी गुनगुनाते है लोग
मैं अकेला;
देखता हूँ, आ रही
मेरे दिवस की सांध्य वेला।
पके आधे बाल मेरे,
हुए निष्प्रभ गाल मेरे,
चाल मेरी मंद होती आ रही,
हट रहा मेला।
जानता हूँ, नदी-झरने,
जो मुझे थे पार करने,
कर चुका हूँ, हँस रहा यह देख,
कोई नहीं भेला।1
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