अज्ञेय का वो हिंदी सागर जिसमें आज भी डूब जाते है लोग
मैं देख रहा हूँ
झरी फूल से पँखुरी
—मैं देख रहा हूँ अपने को ही झरते।
मैं चुप हूँ :
वह मेरे भीतर वसंत गाता है।
मैं देख रहा हूँ
झरी फूल से पँखुरी
—मैं देख रहा हूँ अपने को ही झरते।
मैं चुप हूँ :
वह मेरे भीतर वसंत गाता है।
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