आधुनिक हिंदी की मीरा हैं- महादेवी वर्मा

Written BY - Arpit Singh 

बेबाक सजक और सहज, हिंदी साहित्य की एक अद्भुद प्रतिभा, ममत्व की देवी थी महादेवी वर्मा, वो कवित्री होने के साथ-साथ महिलओं को अपने अधिकारों के   लिए लड़ना भी सिखाती थी, महादेवी वर्मा जिन्हें आधुनिक हिंदी की मीरा के नाम से भी जाना जाता हैं.

हिंदी साहित्य जगत की महान लेखिका महादेवी वर्मा का साहित्य जगत में उसी प्रकार से नाम है जैसे कि मुंशी प्रेमचंद व अन्य साहित्यकारों का। महादेवी वर्मा ने केवल साहित्य ही नहीं अपितु काव्य समालोचना, संस्मरण, संपादन तथा निबंध लेखन के क्षेत्र में प्रचुर कार्य किया है. वही इसके साथ ही वे एक अप्रतिम रेखा चित्रकार भी थीं। उनका जन्म होली के दिन हुआ था। 200 वर्षो के बाद उनके घर में किसी लड़की का जन्म हुआ था. उनके पुरे परिवार में खुसी की लहर आई गई थी. उनके बाबा बांके बिहरी ने उस बच्ची को घर की देवी कहा जो आगे चलके इनका नाम महादेवी वर्मा पड़ता हैं. वह काफी हसमुंख स्वभाव की थीं। 17 वर्ष की आयु में उनकी शादी हो गई थी, लेकिन उनके लिए गृहस्त जीवन बना ही नहीं था, विधाता ने उनके लिए कुछ और ही चुना था, उन्होंने सन्यासी जीवन जीने का निर्णय किया और आजीवन उसे निभाती भी रही. रंगों के त्यौहार होली के दिन पैदा हुई महादेवी वर्मा ने अपने जीवन में केवल एक रंग अपनाया सफ़ेद रंग जो पवित्रता, शुद्धता, विद्या और शांति का प्रतिक हैं. सफ़ेद रंग में सभी रंग समाये हुए होते हैं ऐसी ही महादेवी के भी कई रंग थे, अपनी पीड़ा को गीत में बदल देने वाली महादेवी, शिक्षा की मुहीम चलने वाली क्रांतिकारी महादेवी और अपने अकेलेपन को अपना सबसे मजबूत हथियार बना लेने वाली महादेवी. उनकी कविताओं में अकेलपन और पीड़ा झलकता हैं. आइये उनके कुछ रचनाओं पर प्रकाश डालते हैं ....

पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला

घेर ले छाया अमा बन
आज कंजल-अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन

और होंगे नयन सूखे
तिल बुझे औ’ पलक रूखे
आर्द्र चितवन में यहां
शत विद्युतों में दीप खेला

अन्य होंगे चरण हारे
और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे

दुखव्रती निर्माण उन्मद
यह अमरता नापते पद
बांध देंगे अंक-संसृति
से तिमिर में स्वर्ण बेला

दूसरी होगी कहानी
शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी

आज जिस पर प्रलय विस्मित
मैं लगाती चल रही नित
मोतियों की हाट औ’
चिनगारियों का एक मेला

हास का मधु-दूत भेजो
रोष की भ्रू-भंगिमा पतझार को चाहे सहे जो

ले मिलेगा उर अचंचल
वेदना-जल, स्वप्न-शतदल
जान लो वह मिलन एकाकी
विरह में है दुकेला!

2- स्वप्न से किसने जगाया?

मैं सुरभि हूं।
छोड कोमल फूल का घर,
ढूंढती हूं निर्झर।
पूछती हूं नभ धरा से क्या नहीं र्त्रतुराज आया?
स्वप्न से किसने जगाया?

मैं ऋतुओं में न्यारा वसंत,
मैं अग-जग का प्यारा वसंत।
मेरी पगध्वनी सुन जग जागा,
कण-कण ने छवि मधुरस मांगा।

नव जीवन का संगीत बहा,
पुलकों से भर आया दिगंत।
मेरी स्वप्नों की निधि अनंत,
मैं ऋतुओं में न्यारा वसंत।

                                   महादेवी वर्मा 

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