जब जब बढ़ा अत्याचार, तब तो एक ही पुकार, सिंहासन ख़ाली करों की जनता आती हैं

सत्ता जब जनता के प्रति अपनी जवाबदारी देने से बचती हैं, वो आम जनता को ध्यान में न रख कर अधिनायकवाद की तरफ़ अपना क़दम बढ़ाती हैं, जब सत्ता देश के सविंधान के विपरीत जाती हैं, जब जनता कहती हैं. we the people of india और सत्ता पलट के पूछने लगे हैं. who the people of india? तब एक आवाज़ आती हैं. इंकलाब की आवाज. जब कोई हाकिम कहे एक सरकार, एक विचारधारा, एक पार्टी का राज होगा. देश में एकल की राजनीति होगी. तब एक गूंज उठती हैं,

क्रांति की. जब कोई सरकार लोकतंत्र के मूल्यों का हनन करें, जब कोई शासक जनता के मौलिक अधिकारों से उन्हें दूर रखे तब कोई नेता खड़ा होता हैं और जननायक बनता हैं. तब कोई कवि लिखता हैं और राष्ट्रकवि बनता हैं. तब जनता उठती हैं और क्रांति को सम्पूर्ण क्रांति में बदलती हैं. तब देश का बच्चा बच्चा कहता हैं सिंहासन ख़ाली करों की जनता आती हैं. 

 सिंहासन ख़ाली करों की जनता आती हैं. इस कविता को लिखा हैं राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने इस कविता को सम्पूर्ण क्रांति में ख़ूब गाया गया. रामधारी सिंह दिनकर एक ऐसे कवि थे जो अपने से ज्यादा देश को प्रेम करते हैं और जब-जब सत्ता से देश के आवाम पर संकट आया तब-तब दिनकर की कलम ने बोली हल्ला बोल. आज खास आपने लिए राष्ट्रकवि दिनकर की कविता सिंहासन ख़ाली करों की जनता आती हैं. ये ऐसी उर्जावर्धक कविता हैं. जब कभी भी कोई भी आपका अखिकारों का हनन करेगा. आपका शोषण करेगा तब-तब ये कविता आपकों संगठित करेगी और आपकों हकीमों से लड़ने की क्षमता देगी.

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी, 
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; 
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, 
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। 

जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही, 
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली, 
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे 
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
 
जनता? हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम, 
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।" 
"सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?" 
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"
 
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं, 
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में; 
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के 
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।

लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं, 
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है; 
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, 
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
 
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, 
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है, 
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां? 
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।

अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार 
बीता गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय 
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं। 

सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा, 
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो 
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है, 
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो। 

आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख, 
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में? 
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे, 
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में। 

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं, 
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है; 
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, 
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। 

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