उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा, पढ़िए इंकलाबी नज़्म


हम देखेंगे- साल 1979, एक कट्टर मुश्लिम तानाशाह,  जिसका नाम था मुहम्मद ज़िया-उल-हक़, ये पाकिस्तान का चौथा तानाशाह फ़ौजी और छटवां राष्ट्रपति था, उनके शासनकाल में पाकिस्तान में गहरे इस्लामीकरण की नीतियाँ चलीं, उसने लोगों को इस्लाम के नाम पर, इस्लाम के जरिये. उनका शोषण करता था, उन पर जुल्म ढा रहा था, फैज़ अहमद फैज़ एक क्रांतिकारी कवि, उन्होंने ज़िया-उल-हक़ के रजिम के खिलाफ़ आवाज उठाते हुए लिखा था 

"हम देखेंगे"... ये नज्म लिखने के कुछ सालों के बाद जब इकबाल बानों ने ये नज्म  1986 में अपने अंदाज में गाया तब जिस स्टेडियम में उन्होंने गाया वहा करीब 50 हजार से भी ज्यादा लोग जुट गए और सभी एक साथ गाने लगे आइये फैज़ की इस नज्म से आपका परिचय कराते हैं जिसे पढ़ का आपका दिन बन जायेगा. 

हम देखेंगे,  लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है,,,जो लोह-ए-अज़ल में लिखा है.
हम देखेंगे - लाज़िम है कि हम भी देखेंगे

जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां रुई की तरह उड़ जाएगी 
हम महकूमों के पाँव तले , ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर ऊपर जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी,
 हम देखेंगे,  लाज़िम है कि हम भी देखेंगे,

जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे

बस नाम रहेगा अल्लाह का जो ग़ायब भी है हाज़िर भी ---
जो मंज़र भी हैं, नज़ीर भी ,, उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा जो मैं भी हूँ और तुम भी हो 
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा, जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

                                                        फैज़ अहमद फैज़ 

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