आप सम्राट हैं या मैं हूँ - मन का खेल

आप कभी-कभी देखते हैं की जब आपकों कोई कामयाबी मिल जाती हैं और जब आप थोड़ी सी प्रसिद्धी पा जाते हैं तो आपके अन्दर कही न कही अहंकार तो आ ही जाता होगा जिसे आप अपना कर मन ही मन बहुत खुश हो रहे होते हैं लेकिन वो अमृत नहीं हैं. अमृत तो शांति में हैं स्वीकृति में हैं. पढ़िए एक ऐसी ही एक शानदार कहानी....


एक पुरानी कहानी है. एक अपढ़ ग्रामीण, सम्राट के दर्शन के लिए, अपने घोड़े पर सवार हो राजधानी की तरफ चला. संयोग की बात, सम्राट भी उसी मार्ग से, शिकार करने के बाद राजधानी की तरफ वापिस लौटता था. उसके संगी-साथी कहीं पीछे जंगल में भटक गये थे. वह अपने घोड़े पर अकेला था. इस ग्रामीण का उस सम्राट से मिलना हो गया.

सम्राट ने पूछा, क्यों भाई चौधरी! राजधानी किसलिए जा रहे हो? तो उस ग्रामीण ने कहा कि सम्राट के दर्शन करने; बड़े दिन की लालसा है, आज सुविधा मिल गई. सम्राट ने कहा, तुम बड़े सौभाग्यशाली हो. सम्राट के दर्शन ऐसे तो आसान नहीं, लेकिन तुम्हें आज सहज ही हो जायेंगे. ग्रामीण ने कहा, जब बात ही उठ गई, तो एक बात और बता दें. दर्शन तो सहज हो जायेंगे, लेकिन मैं पहचानूंगा कैसे कि सम्राट यही है? यही मन में एक चिंता बनी है. सम्राट ने कहा, घबड़ाओ मत; जब हम राजधानी में पहुंचें और तुम देखो, किसी घोड़े पर सवार आदमी को, जिसे सभी लोग झुक-झुक कर नमस्कार कर रहे हैं, तो समझना कि यही सम्राट है.

फिर वे बहुत तरह की बातें, गपशप करते राजधानी पहुंच गये, द्वार के भीतर प्रविष्ट हुए; लोग झुक-झुक कर नमस्कार करने लगे. ग्रामीण बहुत चौंका. थोड़ी देर बाद उसने कहा कि भाई साहब, बड़ी दुविधा हो गई, या तो सम्राट आप हैं या मैं हूं.
उसकी दुविधा, मन की ही दुविधा है. मन इतने निकट है चेतना के कि भ्रांति हो जाती है कि या तो सम्राट आप हैं या मैं हूं. जब भी कोई झुक कर नमस्कार करता है तो मन समझता है, मुझे की जा रही है; इसी भ्रांति से अहंकार निर्मित होता है. जब भी कोई प्रेम करता है, मन समझता है मुझे किया जा रहा है. मन सिर्फ निकट है जीवन के. बहुत निकट है. इतना निकट है कि जीवन उसमें प्रतिबिंबित होता है और जीवित मालूम होता है मन.

मन पदार्थ का हिस्सा है. मन चेतना का हिस्सा नहीं है. मन शरीर का ही सूक्ष्मतम अंग है. मन शरीर का ही विकास है. लेकिन चेतना के बिलकुल निकट है. और इतना सूक्ष्म है मन, और चेतना के इतने निकट है कि यह भ्रांति बड़ी स्वाभाविक है हो जाना मन को, कि मैं ही सब कुछ हूं.

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