घास की रोटी खाकर आज़ादी को जिंदा रखा, विश्व के समूचे इतिहास में महाराणा प्रताप जैसा शौर्यवान योद्धा नहीं
#1
आज 9 मई है, ये वो शुभ दिन है जब महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया का जन्म हुआ था. प्रताप उदयपुर, मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के राजा थे. उनका नाम इतिहास में वीरता, शौर्य, त्याग, पराक्रम और दृढ प्रण के लिये अमर है. उन्होंने मुगल बादशहा अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और कई सालों तक संघर्ष किया, उदयपुर मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के राजा महाराणा प्रताप सिंह का नाम इतिहास के शिलालेखों पर सुनहरे अक्षरों से सुशोभित है. विश्व के समूचे इतिहास में ऐसा योद्धा नहीं हुआ जिसके पास महाराणा प्रताप जैसा शौर्य और धैर्य हो. मेवाड़ का इतिहास हमेशा से इस्लामी आक्रांताओं से संघर्ष का रहा है,
महाराणा प्रताप के पूर्वज बाप्पा रावल, ने मुहम्मद बिन कासिम को 712 ई. में अरब तक दौड़कर मारा था, जिसके बाद 300 सालों तक कोई मुस्लिम आक्रांता भारत पर हमला नहीं किया, राणा कुम्भा, राणा सांगा, और रावल रतन सिंह जैसे महान राजाओं ने सतत मुगलों, तुर्कों और लोदियों से लोहा लिया है. महाराणा प्रताप भी उस दौर के मुग़ल बादशाह अकबर से संघर्ष रहा था, राणा प्रताप और अकबर की लड़ाई भारत की महानतम शौर्य गाथाओ में से एक है, एक तरफ़ अकबर की ये ज़िद थी की मेवाड़ को मुगलिया सल्तनत के आगे झुकना ही होगा, वही दूसरी तरफ़ महाराणा का सौगंध था की घास की रोटी खा लेंगे लेकिन एक जालिम को जिल्ले-इलाही नहीं कहेंगे. हल्दीघाटी युद्ध से 9 साल पहले अकबर ने चित्तौड़गढ़ में बर्बरता का तांडव किया था, उसने बच्चों, बुजुर्गों सहित 30 हजार लोगो की हत्या कर दी था.. जिसका प्रतिशोध महाराणा ने हल्दिघादी के समर भूमि में लिया. महाराणा प्रताप का शौर्य ऐसा था की उन्होंने बेह्लोल खान को एक ही वार में घोड़े सहित दो हिस्सों में काट दिया था. महाराणा प्रताप ने अपने भाले से अपनी जवानी की अमर कहानी लिख दी थी..
महाराणा की भीष्म प्रतिज्ञा
महाराणा प्रताप ने भीष्म प्रतिज्ञा ली की जब तक मैं शत्रुओं से अपनी पावन मात्रभूमि को आज़ाद नहीं करा लेता, तब तक न मैं महलों में रहूँगा, ना ही शैय्या पर सोऊंगा और ना ही सोने चांदी अथवा किसी धातु के पात्र में भोजन करूँगा, अब से पेड़ों की छाव मेरा महल, घास ही मेरा बिछोना और पत्ते ही मेरे भोजन के पात्र होंगे...
18 जून 1576 हल्दीघाटी का युद्ध
अंततः वो दिन आ गया जिसका महाराणा को वर्षो से इन्तेजार था, महाराणा की सेना में राजपूत, आदिवासी भील और अफगान थे, वही अकबर की ओर से मुगलों के सेना पति मान सिंह थे और उनके साथ कई राजों महाराजों की सेना थी, मुगलिया सेना महाराणा की सेना से काफ़ी अधिक थी, लेकिन महाराणा की सेना में हौसले ज्यादा थी. जब युद्ध शुरू हुआ तो राणाप्रताप के एक हाथ में तलवार थी और दुसरे में भाला थी. महाराणा मुगलों की सेना पर ऐसे टूटे जैसे भेड़ों की भीड़ पर सिंह हमला बोलता है. महाराणा धीरे-धीरे अपने रौद्र रूप में आ गए थे. महाराणा प्रताप का विक्राल रूप देखकर भय भी भयभीत था, महाराणा प्रताप की शौर्य, पराक्रम का वर्णन कई कवियों ने अपनी कवितायों में किया है. मेवाड़ नरेश महाराणा प्रताप की शौर्यता का वर्णन करते हुए कवि श्याम नारायण पांडे अपनी रचना हल्दीघाटी में लिखते है की
श्याम नारायण पाण्डेय
"सरदारो¸ मान–अवज्ञा से
मां का गौरव बढ़ गया आज।
दबते न किसी से राजपूत
अब समझेगा बैरी–समाज।"॥
वह मान महा अभिमानी है
बदला लेगा ले बल अपार।
कटि कस लो अब मेरे वीरो¸
मेरी भी उठती है कटार॥
भूलो इन महलों के विलास
गिरि–गुहा बना लो निज–निवास।
अवसर न हाथ से जाने दो
रण–चण्डी करती अट्टहास॥
लोहा लेने को तुला मान
तैयार रहो अब साभिमान।
वीरो¸ बतला दो उसे अभी
क्षत्रियपन की है बची आन॥
साहस दिखलाकर दीक्षा दो
अरि को लड़ने की शिक्षा दो।
जननी को जीवन–भिक्षा दो
ले लो असि वीर–परिक्षा दो॥
रख लो अपनी मुख–लाली को
मेवाड़–देश–हरियाली को।
दे दो नर–मुण्ड कपाली को
शिर काट–काटकर काली को॥
विश्वास मुझे निज वाणी का
है राजपूत–कुल–प्राणी का।
वह हट सकता है वीर नहीं
यदि दूध पिया क्षत्राणी का॥
नश्वर तनको डट जाने दो
अवयव–अवयव छट जाने दो।
परवाह नहीं¸ कटते हों तो
अपने को भी कट जाने दो॥
अब उड़ जाओ तुम पाँखों में
तुम एक रहो अब लाखों में।
वीरो¸ हलचल सी मचा–मचा
तलवार घुसा दो आँखों में॥
यदि सके शत्रु को मार नहीं
तुम क्षत्रिय वीर–कुमार नहीं।
मेवाड़–सिंह मरदानों का
कुछ कर सकती तलवार नहीं॥
मेवाड़–देश¸ मेवाड़–देश¸
समझो यह है मेवाड़–देश।
जब तक दुख में मेवाड़–देश।
वीरो¸ तब तक के लिए क्लेश॥
सन्देश यही¸ उपदेश यही
कहता है अपना देश यही।
वीरो दिखला दो आत्म–त्याग
राणा का है आदेश यही॥
2- चेतक की दीवानगी
होती थी भीषण मार–काट¸
अतिशय रण से छाया था भय।
था हार–जीत का पता नहीं¸
क्षण इधर विजय क्षण उधर विजय॥
कोई व्याकुल भर आह रहा¸
कोई था विकल कराह रहा।
लोहू से लथपथ लोथों पर¸
कोई चिल्ला अल्लाह रहा॥
धड़ कहीं पड़ा¸ सिर कहीं पड़ा¸
कुछ भी उनकी पहचान नहीं।
शोणित का ऐसा वेग बढ़ा¸
मुरदे बह गये निशान नहीं॥
मेवाड़–केसरी देख रहा¸
केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड़–दौड़ करता था रण¸
वह मान–रक्त का प्यासा था॥
चढ़कर चेतक पर घूम–घूम
करता मेना–रखवाली था।
ले महा मृत्यु को साथ–साथ¸
मानो प्रत्यक्ष कपाली था॥
रण–बीच चौकड़ी भर–भरकर
चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से¸
पड़ गया हवा को पाला था॥
गिरता न कभी चेतक–तन पर¸
राणा प्रताप का कोड़ा था।
वह दोड़ रहा अरि–मस्तक पर¸
या आसमान पर घोड़ा था॥
जो तनिक हवा से बाग हिली¸
लेकर सवार उड़ जाता था।
राणा की पुतली फिरी नहीं¸
तब तक चेतक मुड़ जाता था॥
कौशल दिखलाया चालों में¸
उड़ गया भयानक भालों में।
निभीर्क गया वह ढालों में¸
सरपट दौड़ा करवालों में॥
है यहीं रहा¸ अब यहाँ नहीं¸
वह वहीं रहा है वहाँ नहीं।
थी जगह न कोई जहाँ नहीं¸
किस अरि–मस्तक पर कहाँ नहीं॥
बढ़ते नद–सा वह लहर गया¸
वह गया गया फिर ठहर गया।
विकराल ब्रज–मय बादल–सा
अरि की सेना पर घहर गया॥
भाला गिर गया¸ गिरा निषंग¸
हय–टापों से खन गया अंग।
वैरी–समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग॥
चढ़ चेतक पर तलवार उठा
रखता था भूतल–पानी को।
राणा प्रताप सिर काट–काट
करता था सफल जवानी को॥
कलकल बहती थी रण–गंगा
अरि–दल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी
चटपट उस पार लगाने को॥
वैरी–दल को ललकार गिरी¸
वह नागिन–सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो¸बचो¸
तलवार गिरी¸ तलवार गिरी॥
पैदल से हय–दल गज–दल में
छिप–छप करती वह विकल गई!
क्षण कहाँ गई कुछ¸ पता न फिर¸
देखो चमचम वह निकल गई॥
क्षण इधर गई¸ क्षण उधर गई¸
क्षण चढ़ी बाढ़–सी उतर गई।
था प्रलय¸ चमकती जिधर गई¸
क्षण शोर हो गया किधर गई॥
क्या अजब विषैली नागिन थी¸
जिसके डसने में लहर नहीं।
उतरी तन से मिट गये वीर¸
फैला शरीर में जहर नहीं॥
थी छुरी कहीं¸ तलवार कहीं¸
वह बरछी–असि खरधार कहीं।
वह आग कहीं अंगार कहीं¸
बिजली थी कहीं कटार कहीं॥
लहराती थी सिर काट–काट¸
बल खाती थी भू पाट–पाट।
बिखराती अवयव बाट–बाट
तनती थी लोहू चाट–चाट॥
सेना–नायक राणा के भी
रण देख–देखकर चाह भरे।
मेवाड़–सिपाही लड़ते थे
दूने–तिगुने उत्साह भरे॥
क्षण मार दिया कर कोड़े से
रण किया उतर कर घोड़े से।
राणा रण–कौशल दिखा दिया
चढ़ गया उतर कर घोड़े से॥
क्षण भीषण हलचल मचा–मचा
राणा–कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह
रण–चण्डी जीभ पसार बढ़ी॥
वह हाथी–दल पर टूट पड़ा¸
मानो उस पर पवि छूट पड़ा।
कट गई वेग से भू¸ ऐसा
शोणित का नाला फूट पड़ा॥
जो साहस कर बढ़ता उसको
केवल कटाक्ष से टोक दिया।
जो वीर बना नभ–बीच फेंक¸
बरछे पर उसको रोक दिया॥
क्षण उछल गया अरि घोड़े पर¸
क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर।
वैरी–दल से लड़ते–लड़ते
क्षण खड़ा हो गया घोड़े पर॥
क्षण भर में गिरते रूण्डों से
मदमस्त गजों के झुण्डों से¸
घोड़ों से विकल वितुण्डों से¸
पट गई भूमि नर–मुण्डों से॥
ऐसा रण राणा करता था
पर उसको था संतोष नहीं
क्षण–क्षण आगे बढ़ता था वह
पर कम होता था रोष नहीं॥
कहता था लड़ता मान कहाँ
मैं कर लूँ रक्त–स्नान कहाँ।
जिस पर तय विजय हमारी है
वह मुगलों का अभिमान कहाँ॥
भाला कहता था मान कहाँ¸
घोड़ा कहता था मान कहाँ?
राणा की लोहित आँखों से
रव निकल रहा था मान कहाँ॥
लड़ता अकबर सुल्तान कहाँ¸
वह कुल–कलंक है मान कहाँ?
राणा कहता था बार–बार
मैं करूँ शत्रु–बलिदान कहाँ?॥
तब तक प्रताप ने देख लिया
लड़ रहा मान था हाथी पर।
अकबर का चंचल साभिमान
उड़ता निशान था हाथी पर॥
वह विजय–मन्त्र था पढ़ा रहा¸
अपने दल को था बढ़ा रहा।
वह भीषण समर–भवानी को
पग–पग पर बलि था चढ़ा रहा॥
फिर रक्त देह का उबल उठा
जल उठा क्रोध की ज्वाला से।
घोड़ा से कहा बढ़ो आगे¸
बढ़ चलो कहा निज भाला से॥
हय–नस नस में बिजली दौड़ी¸
राणा का घोड़ा लहर उठा।
शत–शत बिजली की आग लिये
वह प्रलय–मेघ–सा घहर उठा॥
क्षय अमिट रोग¸ वह राजरोग¸
ज्वर सन्निपात लकवा था वह।
था शोर बचो घोड़ा–रण से
कहता हय कौन¸ हवा था वह॥
तनकर भाला भी बोल उठा
राणा मुझको विश्राम न दे।
बैरी का मुझसे हृदय गोभ
तू मुझे तनिक आराम न दे॥
खाकर अरि–मस्तक जीने दे¸
बैरी–उर–माला सीने दे।
मुझको शोणित की प्यास लगी
बढ़ने दे¸ शोणित पीने दे॥
मुरदों का ढेर लगा दूँ मैं¸
अरि–सिंहासन थहरा दूँ मैं।
राणा मुझको आज्ञा दे दे
शोणित सागर लहरा दूँ मैं॥
रंचक राणा ने देर न की¸
घोड़ा बढ़ आया हाथी पर।
वैरी–दल का सिर काट–काट
राणा चढ़ आया हाथी पर॥
गिरि की चोटी पर चढ़कर
किरणों निहारती लाशें¸
जिनमें कुछ तो मुरदे थे¸
कुछ की चलती थी सांसें॥
वे देख–देख कर उनको
मुरझाती जाती पल–पल।
होता था स्वर्णिम नभ पर
पक्षी–क्रन्दन का कल–कल॥
मुख छिपा लिया सूरज ने
जब रोक न सका रूलाई।
सावन की अन्धी रजनी
वारिद–मिस रोती आई॥
--------हल्दीघाटी / श्यामनारायण पाण्डेय ------------------
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