देश में लगातार बढ़ रहे रेप केस, कब रुकेगी महिलाओं से बर्बरता?
देश में दिन पर दिन रेप के मामले बढ़ते जा रहे हैं लेकिन सवाल यही है कि आखिर महिलाओं के खिलाफ ऐसे बर्बर मामलों पर अंकुश क्यों नहीं लग पा रहा है? इस सवाल पर सरकार आखिर क्यों चुप है...मुश्किल यह है कि सरकारें या पुलिस प्रशासन ऐसे मामलों में कभी अपनी खामी कबूल नहीं करते. इसके अलावा इन घटनाओं के बाद होने वाली राजनीति और लीपापोती की कोशिशों से भी समस्या की मूल वजह हाशिए पर चली जाती है. यही वजह है कि कुछ दिनों बाद सब कुछ जस का तस हो जाता है. वर्ष 2018 में हुए थॉम्पसन रॉयटर्स फाउंडेशन के सर्वेक्षण के मुताबिक, लैंगिक हिंसा के भारी खतरे की वजह से भारत पूरे विश्व में महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देशों के मामले में पहले स्थान पर था..वैसे, रेप के सरकारी आंकड़े भयावह हैं. एनसीआरबी के आंकड़ों में बताया गया है कि...
साल 2013 रेप के 33,707 मामले दर्ज
साल 2014 रेप के 36,735 मामले दर्ज
साल 2016 रेप के 39,000 से ज्यादा मामले दर्ज
साल 2017 रेप के 33, 668 मामले दर्ज
साल 2018 रेप के 33,977 मामले दर्ज
साल 2019 रेप के 32,260 मामले दर्ज
वर्ष 2019 के दौरान रोजाना औसतन 88 महिलाओं के साथ रेप की घटनाएं हुईं
इनमें से 11 फीसदी दलित समुदाय की थीं
ऐसा नहीं है कि सरकारों या पुलिस प्रशासन को ऐसे अपराधों की वजहों की जानकारी नहीं है...लेकिन राजनीतिक संरक्षण, लचर न्याय व्यवस्था और कानूनी पेचींदगियों की वजह से एकाध हाई प्रोफाइल मामलों के अलावा ज्यादातर मामलों में अपराधियों को सजा नहीं मिलती...अब तक इस मुद्दे पर हुए तमाम शोधों से साफ है कि बलात्कार के बढ़ते हुए इन मामलों के पीछे कई वजहें हैं. मिसाल के तौर पर ढीली न्यायिक प्रणाली, कम सजा दर, महिला पुलिस की कमी, फास्ट ट्रैक अदालतों का अभाव और दोषियों को सजा नहीं मिल पाना जैसी वजहें इसमें शामिल हैं. इन सबके बीच महिलाओं के प्रति सामाजिक नजरिया भी एक अहम वजह है...
समाज में मौजूदा दौर में भी लड़कियों को लड़कों से कम समझा जाता है...महिलाओं के साथ होने वाले रेप या यौन उत्पीड़न के ज्यादातर मामलों में पड़ोसियों या रिश्तेदारों का ही हाथ होता है...निर्भया कांड के बाद कानूनों में संशोधन के बावजूद अगर ऐसे मामले लगातार बढ़ रहे हैं तो इसके तमाम पहलुओं पर दोबारा विचार करना जरूरी है...महज कड़े कानून बनाने का फायदा तब तक नहीं होगा जब तक राजनीतिक दलों, सरकारों और पुलिस में उसे लागू करने की इच्छाशक्ति नहीं हो...इसके साथ ही सामाजिक सोच में बदलाव भी जरूरी है...
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