शब्द-मौन और पीढ़ा

जगत में ना-ना प्रकार के भौतिक सुखों की भरमार है जिसके फलस्वरूप जीवन में अनंत घटनाक्रम होता रहता है | इंसान चुनौतियों से कम और ....... जी हाँ ..... से ज्यादा परेशान है |
जीवन में शब्द अगर सही हों तो आस पास का वातावरण हमेशा शुद्ध रहता है परन्तु अगर शब्दों का चयन सोच समझ कर ना किया जाए तो आखिर में वही शब्द मनुष्य के भीतर या संसार में केवल पीढ़ा ही उत्पन्न करते हैं | 

संसार की संरचना तो एक प्रेम रुपी वातावरण स्थापित करने को हुई थी लेकिन मनुष्य की महत्वाकांक्षा ने संसार में स्वार्थ और अपयश को जन्म दे दिया जिसके परिणामस्वरूप आज मनुष्य अनेकों पीढ़ाओं से ग्रहस्त है |

शब्दों और मौन के बीच का फ़र्क़ यह है कि शब्दों से घाव होते हैं, जबकि मौन निर्लिप्त और अहिंसक होता है. शब्दों का इस्तेमाल आमतौर पर अपनी सार्वजनिक छवि को संभालने के लिए किया जाता है. वहीं, मौन रहने से आत्म-औचित्य पर रोक लगती है. 

जीवन में हर अनुभव, बात-विचार और व्यवहार के दो पहलू होते हैं। जैसे दु:ख-सुख, जीत-हार और सफलता-असफलता। इसी तरह बोलना व मौन रहना है। प्राय: मनुष्यों और पशु-पक्षियों में सबसे अधिक देखी जाने वाली भिन्न्ता वाणी की ही है। मनुष्य स्पष्ट और बोधगम्य भाषा के माध्यम से अपनी वाणी प्रकट कर सकता है, जबकि पशु-पक्षियों के लिए यह सुविधा नहीं है। उनके पास अपनी एक जन्मजात बोली है, जिससे वे अपना काम चलाते हैं | 

हमारे पास कई भाषाओं के जरिए बोलने के लिए बहुत-सी बातें हैं, पर क्या कभी हमने विचार किया कि इतनी बातों को बोलकर हम इनके बदले अपने लिए क्या प्राप्त करते हैं? आज समाज में लोगों में भाषण देने की होड़ लगी है। असंतुलित, कुंठित और प्रदूषित विचार भावनाएं हमें कुछ न कुछ बोलने को उकसाती हैं। इस तरह आवेश में बोलते रहने से सभ्य-असभ्य, श्लील-अश्लील का अंतर मिट चुका है। मनुष्य की वाणी का स्तर गिर रहा है। उससे अच्छी बातें कम और बुरी बातें ज्यादा निकल रही हैं। आज समाज में असभ्यता, अश्लीलता और असंवेदनशीलता बढ़ गई है।
यदि हम थोड़ी-सी संवेदना रखें तो भीतर एक बात प्रकट होती है कि क्यों न इन परिस्थितियों में फंसने से बचें और मौन धारण करें। शायद मौनव्रत रखने का आरंभ ऐसी परिस्थितियों के कारण ही हुआ होगा। मौन शब्द मन से ही निकला है। मन यानी अंत:करण की ओर उन्मुख होने की राह। लंबे समय तक मौन होकर व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का समुचित निरूपण कर सकता है।
मात्र एक दिन के लिए मौनव्रत रखकर हम इसकी महत्ता से परिचित हो सकते हैं। जिस दिन हम चुप रहे और जिस दिन कुछ न कुछ बोलते रहे, दोनों दिन हमें दो विपरीत अनुभव कराते हैं। जिस दिन हम मुखर होते हैं, स्वयं और आस-पड़ोस को केवल बाहरी दृष्टि से देखते हैं। वहीं जिस दिन हम मौनव्रत रखकर अपने दायित्व निभाते हैं, उसमें हमें स्वयं और संसार को देखने की एक उदार दृष्टि प्राप्त होती है। इस तरह यदि मौन रहने का अभ्यास प्रतिदिन हो, तो हम स्वयं और संसार के लिए कितने उदार हो सकते हैं।

एक बहुत शानदार कविता हरिवंश बच्चन साहब ने लिखी है की - 
एक दिन मैंने
मौन में शब्द को धँसाया था
और एक गहरी पीड़ा,
एक गहरे आनंद में,
सन्निपात-ग्रस्त सा,
विवश कुछ बोला था;
सुना, मेरा वह बोलना
दुनिया में काव्य कहलाया था।

आज शब्द में मौन को धँसाता हूँ,
अब न पीड़ा है न आनंद है
विस्मरण के सिन्धु में
डूबता-सा जाता हूँ,
देखूँ,
तह तक
पहुँचने तक,
यदि पहुँचता भी हूँ,
क्या पाता हूँ।

सच में अगर इंसान शब्दों को ठीक से चयनित न करे तो वो मौन हो जाता है जिससे केवल पीढ़ा ही होती है और समग्र संसार में ऐसा कोई नहीं जिसे बिलकुल पीढ़ा न हो |

 

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