"बग़ैर उस के अब आराम भी नहीं आता"- ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

अपनी लिखावट और अपनी ग़ज़लों और शायरियों के ज़रिये एक विशेष पहचान बनाने वाले बेशुमार लोगों के नामों में शामिल है एक नाम जिसने दिल की लगी को दिल से बयाँ भी किया और दिल की तकलीफों को भी ग़ज़लों को बखूबी बयाँ किया है। आज सी न्यूज़ भारत के साहित्य में हम आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर की कुछ चुनिंदा ग़ज़लें जिन्हें पढ़ कर आप भी अपने कमेंट्स कर के बताएँ कि आपको ये ग़ज़लें कैसी लगीं...।
तो सबसे पहले पेश है ग़ज़ल "आँख से बिछड़े काजल को तहरीर बनाने वाले"...।
आँख से बिछड़े काजल को तहरीर बनाने वाले,
मुश्किल मे पड़ जाएँगे तस्वीर बनावे वाले।
ये दीवाना-पन तो रहेगा दश्त के साथ सफर में,
साए में सो जाएँगे जंजीर बनाने वाले।
उस ने तो देखे अन-देखे ख्वाब सभी लौटाए,
और थे शायद टूटी हूई ताबीर बनाने वाले।
सोने की दीवार से आगे मेरे काम न आए,
सच्चे जज्बे मिट्टी को इक्सीर बनाने वाले।
जुज्व-ए-शेर नहीं है ‘कासिर’ जुज्व-ए-जाँ कर डाले,
हम को जितने दर्द मिले थे ‘मीर’ बनाने वाले।।
गलियों की उदासी पूछती है घर का सन्नाटा कहता है,
इस शहर का हर रहने वाला क्यूँ दूसरे शहर में रहता है।
इक ख्वाब-नुमा बे-दारी में जाते इुए उस को देखा था,
एहसास की लहरों में अब तक हैरत का सफीना बहता है।
फिर जिस्म के मंजर-नामे में सोए हुए रंग न जाग उट्ठें,
इस खौफ से वो पोशाक नहीं बस ख्वाब बदलता रहता है।
छे दिन तो बड़ी सच्चाई से साँसों ने पयास रसानी की,
आराम का दिन है किस से कहें दिल आज जो सदमे सहता है।
हर अहद ने जिंदा गजलों के कितने ही जहाँ आबाद किए,
पर तुझे को देख के सोचता हूँ ड़क शेर अभी तक रहता है।।
बग़ैर उस के अब आराम भी नहीं आता,
वो शख़्स जिस का मुझे नाम भी नहीं आता।
उसी की शक्ल मुझे चाँद में नज़र आए,
वो माह-रुख़ जो लब-ए-बाम भी नहीं आता।
करूँगा क्या जो मोहब्बत में हो गया नाकाम,
मुझे तो और कोई काम भी नहीं आता।
बिठा दिया मुझे दरिया के उस किनारे पर,
जिधर हुबाब तही-जाम भी नहीं आता।
चुरा के ख़्वाब वो आँखों को रेहन रखता है,
और उस के सर कोई इल्ज़ाम भी नहीं आता।।
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